इससे एकदम इंकार करना तो मुश्किल होगा कि डेढ़ सौ साल से भी पुरानी इस सरकारी सेवा की वर्तमान चमक के पीछे कहीं न कहीं इससे जुड़ी ब्रिटिशकालीन लीगेसी का हाथ है। लेकिन यही सब कुछ नहीं है। इंडियन इम्पीरियल सर्विस के इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन सर्विस में बदलने के अब सत्तर वर्षों से अधिक की यात्रा के दौर में इसने जाने-अनजाने में अपनी भी कुछ ऐसी लीगेसिज़ विकसित कर ली हैं। इसके कारण अंग्रेजी सत्ता के जाने के बावजूद इसकी चमक में जिस कमी के आने की आशंका व्यक्त की जा रही थी, उसकी क्षतिपूर्ति हो गई। और इसकी ‘स्टार वैल्यू’ बरकरार रह गई।
वस्तुतः इमेज का जो अंतर एक नेशनल चैम्पियन और ऑलम्पिक चैम्पियन में होता है, वही स्थिति प्रतियोगी परीक्षाओं के बीच आई.ए.एस. की परीक्षा का है। यह उन सबका ऑलम्पिक गेम है, बावजूद इसके कि है यह एक राष्ट्रीय स्तर की ही परीक्षा।
जब मैं इस परीक्षा की तुलना ऑलम्पिक खेलों से कर रहा हूँ, तब भी मैं आई.ए.एस. परीक्षा के चरित्र के साथ सही न्याय नहीं कर रहा हूँ। उदाहरण के लिए टोक्यो ओलम्पिक में दुनिया भर के खिलाड़ी दुनिया भर के खिलाड़ियों के साथ खेलेंगे, लेकिन अपने-अपने खेल वालों से ही। वहाँ ऐसा नहीं होगा कि एक पहलवान बेडमिंटन खेल रहा होगा, और हॉकी का खिलाड़ी जिमनास्ट कर रहा होगा।
जबकि आई.ए.एस. की परीक्षा में ऐसा ही होता है। आप डॉक्टर, इंजीनियर, एम बी ए आदि कुछ भी हों, यहाँ आप मात्र एक ऐसे खिलाड़ी हैं, जिसने स्नातक करके इसमें भाग लेने की न्यूनतम योग्यता हासिल कर ली है। यानी इस मंच पर आप अपनी पृष्ठभूमि की केंचुली को उतारकर आते हैं। यहाँ आकर सब एक हो जाते हैं।
इसी से जुड़ी हुई एक और भी बहुत महत्वपूर्ण और मजेदार बात है। वह मजेदार बात यह है कि इस परीक्षा की योग्यता के अन्तर्गत कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि ‘ग्रेजुएशन में आपके न्यूनतम इतने माक्र्स तो होने ही चाहिए।’’ कितने भी माक्र्स हों, चलेगा। यानी कि यह मंच ऊपर से टॉप करने वाले और यदि इस सूची को उलट दिया जाये, तो नीचे से टॉप करने वाले, दोनों को समान रूप से देखता है। व्यावहारिक दृष्टि से यह बात थोड़ी विचित्र और काफी कुछ अन्यायपूर्ण भी लगती है। लेकिन यहाँ ऐसा ही है।
ये सब जानकर-पढ़कर आपके दिमाग में यह प्रश्न उठना ही चाहिए कि ‘ऐसा क्यों है?’’ देश के सबसे बड़े और जिम्मेदार पदों पर भर्ती के लिए न्यूनतम अंकों की कोई तो सीमा रखनी ही चाहिए थी। सवाल यह कि यह सब अनजाने में होता चला आ रहा है, या ऐसा जान-बूझकर किया गया है? अनजाने में शुरु की गई कोई भी गलती कुछ सालों तक तो चल सकती है, लेकिन इतने लम्बे समय तक नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि यह बहुत सोची-समझी नीति का हिस्सा है।
जब हम इतिहास को ध्यान से समझने की कोशिश करते हैं, तो हमें प्रशासन के बारे में एक अद्भुत बात जानने को मिलती है। वह यह कि अधिकांश योग्य शासक अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे। मैं चन्द्रगुप्त मौर्य की बात नहीं कर रहा हूँ। सम्राट अशोक, शेरशाह सूरी और अकबर के बारे में आपका ख्याल क्या है? नेपोलियन कहाँ तक पढ़ा था? गांधी जी की एकेडेमिक उपलब्धियां क्या थीं? जब आप इनके बारे में सोचेंगे, तब आपको ज्ञात होगा कि एक अच्छे प्रशासक और एक ब्रिलियन्ट स्टूडेन्ट के बीच का रिश्ता क्या होता है, और वह कितना होता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें