सोमवार, 30 दिसंबर 2019

30-12-2019 महत्वपूर्ण समाचार...बदल रही है भारत की तासीर....पाबंदी का रास्ता

Date:29-12-19

बदल रही है भारत की तासीर

अभय कुमार दुबे, (लेखक प्रख्यात राजनितिक चिंतक और विश्लेषक हैं)
नए नागरिकता कानून (सीएए) और नागरिक होने की प्रामाणिकता (एनपीआर और एनआरसी) को लेकर चल रही बहस ने आधुनिक भारत के आधारभूत विचार पर आरोपित किए जा रहे नए प्रारूप को एक बेरहम रोशनी में हमारे सामने पेश कर दिया है। वैसे यह प्रारूप इतना नया भी नहीं है। अस्सी के दशक से ही यह भारत के आधारभूत विचार में धीरे-धीरे सेंध लगा रहा था। सेंधमारी करने वाली शतियां उस समय सुपरिभाषित रूप से हिंदुत्ववादी नहीं थीं, पर केवल उनकेवस्त्र ही सफेद थे। उनमें और पिछले साढ़े पांच साल में चले सिलसिले में अंतर केवल यह है कि अब इस सेंध ने पूरी दीवार ही गिरा दी है। जो रिसाव था, वह अब प्रवाह में बदल गया है।
चार वैचारिक कल्पनाएं-
हिंदुत्व के नाम पर व्यायायित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के विचार पर लगभग पूरी तरह छा गया है। हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली बीजेपी मजबूती से सत्ता में है, लेकिन चुनावी राजनीति के उतार-चढ़ाव के कारण इस दल के सत्ता से हटने की सूरत में भी भारत के विचार को उत्तरोत्तर हिंदुत्वमय होने से रोकने की संभावनाएं शेष नहीं रहने वाली। कुल मिला कर देश का अगला दशक बिना किसी संकोच के बहुसंयकवादी दशक होगा। संविधान अपनी जगह रहेगा, लेकिन, उसकी कृति के रूप में भारतीय राज्य और समाज केवल श दों में उसकी नुमाइंदगी करते दिखेंगे। हिंदुत्व के हाथों पलटा जा रहा भारत का बुनियादी विचार उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के दौरान परवान चढ़ा था। उसकी शल-सूरत बीसवीं सदी की शुरुआत में उभरी चार राष्ट्रव्यापी वैचारिक कल्पनाओं के बीच मुठभेड़ और सहयोग की विरोधाभासी प्रक्रियाओं से बनी थी। इनमें से एक पर गांधी-नेहरू की छाप थी। इसक आग्रह था कि राज्य-निर्माण और उसके लिए किए जाने वाले राजनीतिकरण का सिलसिला समाज को धीरे-धीरे भारतीय मर्म से संपन्न आधुनिक समरूपीकरण की ओर ले जाएगा। दूसरी पर सावरकर-मुंजे का साया था। इसका सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रॉजेट ‘पुण्य-भू’ और ‘पितृ-भू’ की श्रेणियों के जरिये जातियों में बंटे हिंदू समाज को राजनीतिक-सामाजिक एकता की ग्रिड में बांधने का था। तीसरी पर फुले-आंबेडकर का विचार हावी था और वह सामाजिक प्रश्न को राजनीतिक प्रश्न पर प्राथमिकता देते हुए भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति को तटस्थ शति के रूप में देखती थी। चौथी कल्पना क्रांतिकारी भविष्य में रमी हुई थी और स्वयं को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैश्विक आग्रहों से संसाधित करती थी। गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने अन्य कल्पनाओं के मुकाबले अधिक लचीलापन और सर्वसमावेशी रुझान दिखाते हुए आजाद भारत की कमान संभालने में कामयाबी हासिल की। दरअसल, उसके आगोश में जितनी जगह थी, उसका विन्यास बड़ी चतुराई के साथ किया गया था। वहां पीछे छूट गई बाकी कल्पनाओं के विभिन्न तत्वों को भी जगह मिली हुई थी। इस धारा की खास बात यह थी कि उसमें लोकतंत्र को लगातार सताते रहने वाले बहुसंयकवादी आवेग से निपटने की नैसर्गिक चेतना थी। इसका प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक शतियों ने सुनिश्चित किया कि यह आवेग किसी भी तरह से ‘दुष्टतापूर्ण’ रूप न ग्रहण कर पाए और लगातार ‘सौम्य’ बना रहे। इस उद्यम के पीछे एक आत्म-स्वीकृति यह थी कि बहुसंयकवादी आवेग को खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उसका प्रबंधन अवश्य किया जा सकता है। इसी राजनीतिक प्रबंधन के पहले दौर को विद्वानों ने ‘कांग्रेस सिस्टम’ का नाम दिया है। साठ के दशक के बाद यह प्रबंधन धीरे-धीरे कमजोर होने लगा और इसके क्षय का लाभ उठा कर बाकी तीनों कल्पनाओं ने अपनी दावेदारियां मुखर करनी शुरू कर दीं। सत्तर के दशक से आज तक गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता बाकी तीनों धाराओं की आक्रामकता से भिड़ती रही और पराजित होकर सिकुड़ती चली गई। स्वयं को खत्म होने से बचाने के लिए अस्सी के दशक में इसने बहुसंयकवाद को प्रबंधित करने की अपनी पुरानी प्रौद्योगिकी को छोड़ दिया, और इसके भीतर मौजूद बहुसंयकवादी रुझानों को उभारने में जुट गई। बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा हिंदू वोट बैंक बनाने की रणनीति अपनाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘अगर बीबी इंदिरा ऐसा कर सकती हैं, तो हम यह काम उनसे भी अच्छी तरह से कर सकते हैं। यही वह दौर था जब विभिन्न बहुसंयकवादों की खुली होड़ सार्वजनिक जीवन पर छा गई। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में सिख बहुसंयकवाद, कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुसंयकवाद, उत्तर -पूर्व में ईसाई बहुसंयकवाद और उत्तर -मध्य भारत में बहुजन थीसिस के जरिए प्रवर्तित जातियों का बहुसंयकवाद बीजेपी-संघ के खुले और कांग्रेस के छिपे हिंदू बहुसंयकवाद के साथ प्रतियोगिता करता नजर आया। आज चुनाव में जीत-हार किसी की भी हो, हमारी आधुनिकता का प्रत्यय पूरी तरह से हिंदुत्ववादी हो गया है।संघ परिवार हिंदू समाज की जातिगत संरचना में बिना अधिक छेड़छाड़ किए हुए उसके ऊपर राजनीतिक एकता की ग्रिड डालने में कामयाब हो गया है। हिंदू होने की प्रतिक्रियामूलक चेतना सार्वजनिक जीवन का स्वभाव बन चुकी है। लोकतंत्र के केंद्र में पुलिस, फौज, अर्धसैनिक बलों और सरकार के आज्ञापालन का विचार स्थापित करने की प्रक्रिया जोर पकड़ रही है। प्रतिरोध, व्यवस्था-विरोध और असहमति के विचार लगभग अवैध घोषित कर दिए गए हैं। एक नया भारत बन रहा है, जिसमें उस भारत की आहट भी नहीं है जिसे गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने बनाना शुरू किया था।

Date:28-12-19

पाबंदी का रास्ता

संपादकीय
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के मसले पर समूचे देश में उभरे विरोध के दौरान कुछ जगहों पर हुई हिंसा निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खासतौर पर उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए प्रदर्शन हिंसक हो गए, व्यापक पैमाने पर तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आई , डेढ़ दर्जन से ज्यादा लोगों की जान चली गई। जाहिर है, ऐसी स्थिति फिर से नहीं आने देने के लिए कोई भी सरकार कदम उठाएगी। इस लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से विरोध प्रदर्शनों की संभावना और उसके फिर से हिंसक होने की आशंका के मद्देनजर बीस से ज्यादा जिलों में इंटरनेट पर लगाई गई। अस्थायी पाबंदी प्रथम दृष्ट्या उचित ही लगती है। लेकिन सवाल है कि क्या यह मान लिया गया है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान होने वाली हिंसा को सिर्फ इंटरनेट पर पाबंदी लगा कर रोका जा सकता है!
इसमें कोई शक नहीं है कि आज इंटरनेट पर निर्भर सोशल मीडिया के कुछ मंचों का सहारा लेकर कई बार झूठे ब्योरे फैलाए जाते हैं और उसकी वजह से अराजक स्थिति पैदा हो सकती है। लेकिन ऐसी घटनाएं तब भी होती देखी गई हैं, जब इंटरनेट की सुविधा स्थगित हो। ऐसे में किसी ऐसे माध्यम पर बड़े इलाके में पाबंदी लगाने को कैसे अकेला उपाय मान लिया जाता है जिस पर समूची व्यवस्था का ज्यादातर हिस्सा निर्भर हो!
गौरतलब है कि इस साल अब तक देश में सौ से ज्यादा बार इंटरनेट पर पाबंदी लगाई जा चुकी है। आमतौर पर हिंसा की आशंका, बिगड़ती कानून-व्यवस्था और अफवाहों पर लगाम लगाने के लिए यह कदम उठाया जाता है। लेकिन आज इंटरनेट पर निर्भरता का दायरा जितना व्यापक हो गया है, उसमें इस तरह की पाबंदी जैसे कदम से सारे कामकाज ठप्प हो जाते हैं। बैंकों के कामकाज, एटीएम सेवा, इंटरनेट आधारित पढ़ाई-लिखाई, कारोबार, पर्यटन, ट्रेन के टिकट लेने या इससे जुड़ी सारी गतिविधियों के रुक जाने से जितनी बड़ी आर्थिक क्षति होती है, उसका आकलन शायद ही कभी किया जाता है।
इसके अलावा, कोई अफवाह अगर फैल गई है तो इंटरनेट के सहारे ही प्रशासनिक स्तर पर उसकी हकीकत तेज गति से बता कर उस पर लगाम लगाने की गुंजाइश भी बाधित होती है। जबकि किसी तरह की अव्यवस्था या अराजकता की स्थिति से निपटने में संचार सेवा की भूमिका आज काफी ज्यादा बढ़ गई है। कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए सरकार के पास निषेधात्मक कार्रवाई करने के तमाम उपाय मौजूद हैं। लेकिन पूरी तरह पाबंदी का असर सूचना के प्रसार से लेकर आम लोगों की रोजी-रोटी तक पड़ता है, जिनका किसी तरह की अराजकता से कोई लेना-देना नहीं होता।
अगर सरकार को लगता है कि किसी खास गतिविधि से अशांति, अराजकता और हिंसा फैलने की आशंका है, तो वह उस पर रोक लगाने जैसे कदम उठा सकती है। लेकिन इस तरह की पाबंदी से अगर खुद प्रशासनिक स्तर पर कानून और व्यवस्था लागू करने में बाधा पैदा होती है, अनिवार्य कामकाज बाधित होने की स्थिति पैदा हो जाती है, तो यह दूसरी तरह से पैदा हुई अव्यवस्था ही है। इसलिए उम्मीद की जाती है कि सरकारें और प्रशासन गंभीर असर वाले सख्त कदम को प्राथमिक उपाय नहीं मान कर तब ऐसी पहलकदमी करेगी, जब कोई अन्य विकल्प नहीं बचा हो।
विडंबना यह है कि हाल के दिनों में किसी मसले पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों में हिंसा की आशंका जता कर सरकार की ओर से इंटरनेट पर पाबंदी को प्राथमिक और सबसे महत्त्वपूर्ण रास्ता मान लिया गया है। इससे हिंसा फैलाने में इंटरनेट का सहारा लेने वाले लोगों को अपनी मंशा पूरा करने में कोई बाधा आती हो या नहीं, लेकिन अराजक समूहों से इतर ऐसे कदम से बहुत सारे लोगों की लोकतांत्रिक तरीके से अभिव्यक्ति का अधिकार भी बाधित होता है।

30-12-2019 (Important News Clippings) THE ECONOMIC TIMES


Date:30-12-19

Cadre merger at the Railways welcome

ET Editorials
The move to merge eight Group A service cadres of the Railways into one unified central service labelled the Indian Railway Management Service (IRMS), so as to boost synergy, is path-breaking, indeed, provided the challenges of organisational revamp are addressed. Note that the merger of Indian Airlines with Air India led to human resource management issues that remained unresolved for years.
Various expert committees have called for a unified Indian Railway service, to bring about needed organisational focus, agility, do away with needless departmentalism, and to discourage a ‘culture of working in silos’. The Railways has been organised into various departments such as Traffic, Civil, Mechanical, Electrical, Signal &Telecom, Personnel, Accounts, Stores, etc. The plan now is for a thorough organisational revamp, right from the top. The Railway Board is to have a leaner structure with four members, for Infrastructure, Operations & Business Development, Rolling Stock and Finance, from the present eight, and with independent members drawn from industry, finance, economics and management fields, and headed by the chairman who is to act and function as the CEO.
The change will affect over 8,000 Group A officers in the Railways; promotions would no longer depend on seniority but be based on performance. The way forward, clearly, is to ensure fairness and transparency in the entire process, including by way of seeking top-notch expertise in human resources. Further, the Railways needs a financial change of track. Merely jacking up freight rates to cross-subsidise passenger fares, especially suburban travel, makes no sense. To meet its social obligations, the Railways needs to gainfully form joint ventures with states and municipal bodies.

रविवार, 29 दिसंबर 2019

27-12-2019 Important News Clippings


Date:27-12-19

Future of India’s Green Fund From Coal

ET Editorials
Ideally, the proceeds of the coal cess should be used to finance clean energy and climate-related projects. However, the government has decided to utilise coal cess funds to compensate states for any goods and services tax (GST) shortfall. At least after the five-year period for which the government is committed to compensating the states for a shortfall in their indirect tax collection, the funds should be utilised exclusively for such purposes.
That period ends in 2022. The coal cess, based on the principle of polluter pays, was introduced in 2010 and levied on domestic and imported coal. The cess accrues to the National Clean Energy and Environment Fund (NCEEF), and is an effort to tax carbon for its externalities and serve as a steady source for funding clean energy projects.
The tussle between immediate economic challenges and the demands of transitioning to a sustainable development path confronts many developing economies. Countries will need to step up their efforts to slow down global warming over the next decade.
A commitment that funds collected as coal cess will be used, come 2022, exclusively for financing the country’s transition to a low-carbon and sustainable economy will be timely. India has committed to adding 175 GW renewable capacity by 2022 and then ramp it up to 450 GW. This will require higher flow of funds. The government could raise the cess, thereby creating a corpus for the NCEEF in 2022. The cess has risen from Rs 50 per tonne in 2010 to Rs 200 per tonne in 2015 and to `400 per tonne in 2016. The coal cess collected between 2010-11and 2017-18 amounted to Rs 86,440.21crore.
Of this, Rs 29,645.29 crore was transferred to the NCEEF. Of this, sadly, only Rs 15,911.49 crore has been disbursed. Given the funds crunch, it makes sense to divert coal cess funds for a vital non-green purpose. That should be temporary.

Date:26-12-19

Mind the gap

A rounded approach is necessary to ensure women’s access to resources, opportunities

Editorial
Assessing women’s access to equal opportunity and resources against the access that men have would be a scientific way of evaluating a nation’s commitment to the advancement of its citizens. But going by the World Economic Forum’s Global Gender Gap Index 2020, released last week, questions can easily be raised about whether this government is doing the right thing by the country’s women. India has dropped four points from 2018, to take the 112th rank on the Index. The Index measures the extent of gender-based gaps on four key parameters — economic participation and opportunity, educational attainment, health and survival, and political empowerment. Notably, it measures gender-based gaps in access to resources and opportunities in countries, rather than the actual levels of the available resources and opportunities. Despite a small score improvement, India has lost four positions as some countries ranked lower than India have shown better improvement. The country has reportedly closed two thirds of its overall gender gap, with a score of 66.8%, but the report notes with concern that the condition of women in large fringes of Indian society is ‘precarious’. Of significant concern is the economic gender gap, with a score of 35.4%, at the 149th place, among 153 countries, and down seven places since the previous edition, indicating only a third of the gap has been bridged. The participation of women in the labour force is also among the lowest in the world, and the female estimated earned income is only one-fifth of male income. An alarming statistic is India’s position (150th rank) on the very bottom of the Health and Survival subindex, determined largely by the skewed sex ratio at birth, violence, forced marriage and discrimination in access to health. It is on the educational attainment (112th rank) and political empowerment (18th rank) fronts that the relative good news is buried.
There is no question that the Gender Gap Index presents India with an opportunity to make the necessary amends forthwith. Doing what the government is currently doing is clearly not going to be sufficient; it needs to engage intimately with all aspects indicated by the Index to improve the score, and set targets to reduce the gender gap in the foreseeable future. It will have to drastically scale up efforts it has introduced to encourage women’s participation, and increase opportunities for them. To do so it also needs to make sure there is actual implementation at the ground level. While a good score on any global index is a target worth pursuing, what is being questioned here is basic — is the state reneging on its commitment to half its population? A commitment to ameliorate the conditions for women is a non-negotiable duty of any state.

महत्वपूर्ण समाचार 27-12-2019

देश को राष्ट्रीय शरण नीति की जरूरत

सही तो यह होता कि सरकार सीएए की बजाय एक धार्मिक रूप से तटस्थ नागरिकता बिल पेश करती

संपादकीय
भारी बहुमत से सत्ता में आई भाजपा ने सात घंटे की मैराथन बहस के दौरान विपक्ष के भारी विरोध के बाद पहले लोकसभा और उसके बाद राज्यसभा से नागरिकता संशोधन बिल पारित करा लिया। लोकसभा में बिल के पक्ष में 311 तो विरोध में सिर्फ 80 वोट ही पड़े। ऐसा ही राज्यसभा में भी हुआ और यहां पर 105 के मुकाबले 125 मतों से यह बिल पास हो गया। सांप्रदायिक झलक वाले इस बिल को पारित करके नरेंद्र मोदी सरकार ने देश को सफलतापूर्वक एक अंधेरी राह पर धकेल दिया है और इसे वहां से वापसी के लिए निश्चित ही संघर्ष करना पड़ेगा।
जिस बिल पर बहस हुई, विचार हुआ और पारित हुआ, वह बुनियादी तौर पर उन सभी बातों के प्रतिकूल है, जिनके लिए हम ऐतिहासिक रूप से खड़े रहे हैं। यह घोषित करके कि एक समुदाय उनकी सरकार की नजर में कम महत्व रखता है, इस संशोधन ने समानता और धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने के हमारे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन किया है। साथ ही राष्ट्र के लिए जान देने वाले हमारे पुरखों के विचारों पर भी हमला है। प्रताप भानु मेहता के मुताबिक हमने अब ‘एक संवैधानिक लोकतंत्र को एक असंवैधानिक जातीयतंत्र में बदलने का विशाल कदम उठाया है’।
पूरे देश में, विशेषकर उत्तर पूर्व में इस कानून के प्रतिकूल परिणाम दिख रहे हैं। असम के एक बंगाली छात्र ने तो मुझे ई-मेल करके बताया कि वह स्थानीय असमी लोगों के मन में भरे प्रतिशोध के गुस्से से डरा हुआ है, क्योंकि इन लोगों को लगता है कि इस बिल से उन पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है। हकीकत यह है कि इस कानून का प्रभाव सिर्फ इसके प्रावधानों तक ही सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर नए एनआरसी से जोड़कर इस बिल से भाजपा देशभर में एक डर और कट्टरता का माहौल बनाना चाहती है। यद्यपि, इस पूरी कवायद से भाजपा ने दो लोगों को मुस्कुराने का मौका दे दिया है। पहले निश्चित तौर भाजपा के वैचारिक पूर्वज विनायक दामोदर सावरकर हैं, जिन्होंने सबसे पहले हमारे देश को मुस्लिम भारत व गैर-मुस्लिम भारत में बांटने की बात कही थी। 1940 में यही विचार मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में स्वीकार किए गए पाकिस्तान प्रस्ताव में प्रतिबिंबित हुआ था। हमारे राष्ट्रवादी संघर्ष की गोधूलि पर, हमारा खुद का स्वतंत्रता आंदोलन इस बात पर दो हिस्सों में बंट गया था कि क्या धर्म राष्ट्रीयता का आधार होना चाहिए? जिन्होंने इस सिद्धांत में विश्वास किया, उन्हांेने ही पाकिस्तान के विचार का समर्थन किया। जबकि, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद और अंबेडकर का विचार इसके उलट यह था कि धर्म का राष्ट्रीयता से कोई लेना-देना नहीं है। उनके भारत का विचार सभी धर्मों, क्षेत्रों, जातियों और भाषा के लोगों के लिए एक ऐसा स्वतंत्र देश था, जो द्वि-राष्ट्र की अवधारणा को पूरी तरह नकारता था। हमारा संविधान भारत के इस मूल विचार को प्रतिबिंबित करता है, जिसे अब मोदी सरकार धोखा देना चाहती है।
जैसा मैंने संसदीय बहस के दौरान कहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक का पारित होना निश्चित रूप से गांधी की सोच पर जिन्ना की सोच की विजय है। भाजपा एक साथ पाकिस्तान को नकारने व पाकिस्तान को बनाने के तर्क, दोनांे का समर्थन नहीं कर सकती। कैसी विडंबना है कि हिंदुत्व वाली भाजपा अब मोहम्मद अली जिन्ना की प्रामाणिकता को सुनिश्चित करने में जुटी है। अपने कांग्रेसी आलोचकों पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का आरोप लगाने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार न केवल पाकिस्तान की तरह बात करती है, बल्कि पाकिस्तान की तरह काम करती है और इससे भी खराब यह है कि पाकिस्तान की तरह सोचती है। यह भी विडंबना ही है कि हिंदुत्व वाली पार्टी ने एक ऐसे विधेयक के लिए आक्रामक रूप से जोर लगाया, जो हिंदू सभ्यता की परंपरा के खिलाफ है और उस विरासत को छोड़ने जैसा है, जिस पर हम गर्व करते थे। 1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में अपने भाषण में कहा था कि उन्हें उस भूमि की ओर से बोलने में गर्व महसूस होता है, जिसने सभी धर्मों व देशों के सताए हुए लोगों को शरण दी है। हमने इस विरासत को तिब्बती, बहाई समुदाय, श्रीलंकाई तमिल और बंग्लादेशियों को बिना धर्म पूछे शरण देते हुए कायम रखा। अब यह सरकार सिर्फ एक समुदाय को उत्पीड़न की उन्हीं स्थितियों में शरण देने से इनकार कर रही है, जो बाकी के लिए हैं। और ये यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि इस समुदाय के भारत में रह रहे लोग एक डर के वातावरण में रहें।
सही बात तो यह होती कि भाजपा ने एक धार्मिक रूप से तटस्थ नागरिकता बिल पेश किया होता, जैसा सुझाव लोकसभा सरकार के समर्थक अकाली दल सहित अनेक दलों ने दिया था। यह एक सरकार का बेशर्म प्रदर्शन है, जिसने पिछले साल एक राष्ट्रीय शरण नीति बनाने और उस पर चर्चा से भी इनकार कर दिया था। मैंने इसका प्रस्ताव एक निजी विधेयक के रूप में किया था और इसे व्यक्तिगत रूप से गृहमंत्री, उनके मंत्रियों और गृह सचिव से साझा किया था। अगर, माेदी और अमित शाह की सरकार सच में शरणार्थियों की चिंता करती है तो वह एक राष्ट्रीय शरण नीति की जरूरत को नकार क्यों रही है या फिर वह ऐसी अपनी कोई नीति क्यों नहीं लाती? अचानक वह कुछ शरणार्थियों को नागरिकता देकर एक कदम आगे बढ़ने का दावा करती है, जबकि हकीकत यह है कि वह शरणाथियांे का स्तर सुधारने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत जरूरी मूलभूत चीजें भी नहीं करना चाहती।
एक साल से कुछ ही अधिक समय पहले मेरी उस समय कड़ी आलोचना हुई थी, जब मैंने कहा था कि अगर भाजपा 2019 में जीतती है तो यह पाकिस्तान के हिंदुत्व संस्करण का सूत्रपात करेगी। तब सत्ताधारी दल ने तीखा विरोध किया था और इसके सदस्य मुझ पर अवमानना का मुकदमा चलाने के लिए टूट पड़े थे। कोलकाता के एक जज ने तो इस टिप्पणी के लिए मेरे खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी जारी कर दिया था। दुखद है कि अब मैं दूरदर्शी लगता हूं। पाकिस्तान का हिंदुत्व संस्करण वही है, जो भाजपा के शासन में हमारा भारत बन रहा है।

Date:27-12-19

गलत प्रतिमान बनाकर समाज को बेहतर नहीं कर पाएंगे

संपादकीय
किसी भी समाज में प्रतिमान (आइकॉन) बनाए जाते हैं। ये प्रतिमान हमें उसी जैसा बनने को प्रेरित करते हैं। अगर, हमने जाने-अनजाने में गलत प्रतिमान बनाए तो हमारा समाज भी उसी के अनुरूप ढलने लगता है। फोर्ब्स ने विगत सप्ताहांत में हर साल की तरह भारत के 100 सेलिब्रिटीज के नाम और उनकी रैंकिंग दी है। ध्यान रहे कि ये सेलिब्रिटीज आय और प्रिंट तथा सोशल मीडिया पर उनकी प्रसिद्धि के पैमाने पर तय किए जाते हैं। इस लिस्ट में शीर्ष पर अधिकांशतः फ़िल्मी दुनिया या क्रिकेट के खिलाड़ी हैं। मसलन विराट कोहली ने इस बार सलमान को पीछे छोड़ दिया है, नंबर 2 पर अक्षय कुमार हैं और टॉप टेन में आलिया और दीपिका क्रमशः 8वें और 10वें स्थान पर। चयन का आधार ही स्पष्ट करता है कि अगर देश में किसी टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी में छूट गया लाखों रुपए से भरा सूटकेस उसके मालिक तक पहुंचाया या किसी वैज्ञानिक ने नई खोज की या फिर किसी अफसर ने राजनीतिक दबाव के आगे न झुकते हुए तबादला स्वीकार किया, लेकिन दुष्कर्म की शिकार गरीब युवती की शिकायत पर किसी बड़े राजनेता के खिलाफ केस दर्ज किया तो वह सेलेब्रिटी नहीं होगा, क्योंकि ऐसे कामों से आय तो बढ़ती नहीं है। दूसरा, जो यह सब करता है, वह दिनभर सोशल मीडिया पर नहीं रहता। आपने कभी एक सब्जी बेचने वाले गरीब के बच्चे को जिले में भी सेलिब्रिटी बनते देखा है, जो सिविल सर्विसेज एग्जाम में टॉप कर आईएएस बना या आईआईटी की कठिन एग्जाम में टॉप टेन में रहा? लेकिन, उसी मुहल्ले के एक कक्षा 8 के बच्चे को टीवी के डांस काम्पीटिशन में आने पर उसे कंधे पर उठाने का विजुअल अखबरों और चैनलों में देखा होगा। इसका नतीजा यह होता है कि जब मां-बाप बच्चे को शाम को पढ़ने को कहते हैं तो बेटा उन्हें यह सोचकर देखता है कि ‘तरक्की तो कमर नचाने से होती है। और शायद इसी तरह की सोच के शिकार हो हम सब खूंखार अपराधी को भी चुनाव दर चुनाव वोट देते हैं, यह सोचकर कि गुंडा तो है, लेकिन ‘अपनी बिरादरी की शान है’ या ‘वह गुंडा तो है, लेकिन गरीबों से नहीं अमीरों से पैसा वसूलता है’। आज जरूरत है कि बाजार की ताकतों के वश में होकर गलत प्रतिमान न बनाएं, बल्कि बच्चों के भविष्य के लिए समाज में ईमानदारी और सकारात्मक पहल करने वालों को अपना प्रतिमान बनाएं, ताकि भारत एक बेहतर समाज बन सके।

Date:27-12-19

देश में बने बेरोजगारी का रजिस्टर

प्रो योगेंद्र यादव
देश को अगर कोई राष्ट्रीय रजिस्टर चाहिए, तो वह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय बेरोजगारी रजिस्टर है. अगर सरकार इस प्रस्ताव को मान लेती है, तो देश का हजारों करोड़ रुपये का खर्चा बचेगा, करोड़ों लोग भय और आशंका से मुक्त हो जायेंगे और देश बेरोजगारी की समस्या को सुलझाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठायेगा.
हालांकि, प्रधानमंत्री ने दिल्ली के अपने भाषण में एनआरसी की योजना से पांव खींचने के संकेत दिये, लेकिन उन्होंने साफ तौर पर यह नहीं कहा कि सरकार आगे इस योजना पर अमल नहीं करेगी. प्रधानमंत्री ने एनआरसी के बारे में बोलते हुए असत्य का सहारा लिया, कहा कि इस पर तो चर्चा भी नहीं हुई है.
सच यह है कि एनआरसी की चर्चा अनेक बार आधिकारिक रूप से हो चुकी है. इसकी घोषणा पिछले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने की थी. भाजपा ने इसे अपने 2019 लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में शामिल किया. कैबिनेट द्वारा पारित राष्ट्रपति के अभिभाषण में बाकायदा इस योजना को लागू करने की घोषणा हुई है.
वर्तमान गृहमंत्री कई बार संसद समेत तमाम मंचों पर एनआरसी की योजना को दोहरा चुके हैं, साल 2024 तक इस रजिस्टर को पूरा करने का आश्वासन भी दे चुके हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा मासूमियत दिखाना, मानो उन्हीं इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था, यह लोगों को आश्वस्त करने की बजाय उनकी आशंकाओं को और बढ़ायेगा.
नागरिकता रजिस्टर के पक्षधर कहते हैं कि किसी भी देश के पास अपने सभी नागरिकों की एक प्रमाणित सूची होनी चाहिए. हां, देश के सभी नागरिकों की प्रामाणिक सूची बनाने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए. इससे योजनाओं को लागू करने में मदद ही मिलेगी. सवाल यह है कि ऐसी सूची कैसे तैयार हो? क्या इसके लिए 130 करोड़ से अधिक भारतीयों की नये सिरे से गिनती की जाये? क्या भारत में रहनेवाले हर व्यक्ति पर जिम्मेदारी डाली जाये कि वह इस सूची में शामिल होने के लिए अपनी नागरिकता का सबूत दे? विवाद इन दो सवालों पर है.
अगर सरकार की नीयत देश के नागरिकों की एक प्रामाणिक सूची बनाने की है, तो नये सिरे से शुरुआत करने की कोई जरूरत नहीं है. पूरे देश में वोटर लिस्ट बनी हुई है. अगर बच्चों का नाम भी जोड़ना है, तो राशन कार्ड की मदद ली जा सकती है. इसके अलावा अब अधिकांश हिस्सों में आधार कार्ड उपलब्ध है. इसके अलावा 2021 में होनेवाली जनगणना भी है.
इन सब सूचियों का कंप्यूटर से मिलान कर नागरिकता का रजिस्टर बन सकता है. इसके लिए करोड़ों लोगों को परेशान करने की कोई जरूरत नहीं है. इस सूची में जिन नामों पर कोई आपत्ति हो या शक हो सिर्फ उन्हीं से प्रमाणपत्र मांगे जा सकते हैं. करोड़ों गरीब लोगों के सर पर एनआरसी की तलवार लटकाने की कोई जरूरत नहीं है.
देश को जिस रजिस्टर की सख्त जरूरत है, वह है बेरोजगारी का रजिस्टर. बेरोजगारी के आंकड़े विश्वसनीय तरीके से इकट्ठे करनेवाली संस्था ‘सेंटर फॉर द मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी’ का अनुमान है कि इस समय देश में बेरोजगारी की दर 7.6 प्रतिशत है. ये पंद्रह साल से ऊपर की उम्र के वे लोग हैं, जो काम करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा. इस हिसाब से देश के 3.26 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. हैरानी की बात यह है कि इन बेरोजगारों की कोई सूची सरकार के पास नहीं है.
एक जमाने में सरकार ने एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज बनाये थे, लेकिन वह सब ठप पड़े हैं. एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज में सिर्फ उन्हीं का नाम दर्ज होता है, जो जाकर वहां अपना नाम दर्ज करवायें. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे पांच साल में बेरोजगारों का एक सर्वेक्षण करता है, लेकिन देशभर में एक प्रतिशत से भी कम लोगों का सैंपल लिया जाता है. आज तक देश में सभी बेरोजगारों की कोई एक सूची तैयार ही नहीं हुई है.
अगर सरकार चाहे, तो 2021 की जनगणना के साथ बेरोजगारों का रजिस्टर भी बनाया जा सकता है. जनगणना में परिवार के हर व्यक्ति की आयु शिक्षा और कामकाज के बारे में जानकारी ली जाती है. इस बार यह भी पूछा जा सकता है कि क्या वह व्यक्ति काम करना चाहता है? क्या उसने अपने लिए कामकाज ढूंढने की कोशिश की है?
क्या उसके बावजूद भी वह बेरोजगार है? बस इतने सवाल पूछने भर से देश के हर बेरोजगार की सूची बनाने का काम शुरू हो जायेगा. राष्ट्रीय बेरोजगार रजिस्टर का मतलब सिर्फ बेरोजगारों की सूची नहीं होगा. इसमें बेरोजगारी की किस्म भी देखी जायेगी.
कोई व्यक्ति पूरी तरह बेरोजगार है या आंशिक रूप से बेरोजगार. यह भी दर्ज होगा कि वह किस प्रकार का रोजगार कर सकता है? उसे कितनी शिक्षा या कौन सा हुनर हासिल है? ये सूचनाएं हासिल करने से सरकार को बेरोजगारों के लिए नीति बनाने में मदद मिलेगी. जिन बेरोजगारों का नाम इस रजिस्टर में आये और जिन्हें एक खास अवधि में सरकार रोजगार नहीं दिला पाती, उनके लिए सरकार को कोई व्यवस्था करनी पड़ेगी.
यह काम आसान नहीं होगा. लेकिन एनआरसी बनाने और हर व्यक्ति की नागरिकता के सबूत जुटाने से आसान होगा. यह रजिस्टर नागरिकों में आशंका की बजाय आशा का संचार करेगा. देश को अतीत में ले जाने की बजाय भविष्य की ओर ले जायेगा. क्या यह सरकार ऐसे किसी भविष्य मुखी कदम का संकल्प रखती है? या सिर्फ अतीत के झगड़ों में उलझाकर जनता की आंख में धूल झोंकना चाहती है?

Date:26-12-19

निकाय अफसरों और पार्षदों पर कितना चलेगा अदालत का डंडा

एम जे एंटनी
देश में शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां पानी की आपूर्ति या सीवरेज प्रवाह की संतोषजनक व्यवस्था हो। नगरपालिकाओं के अधिकारी आमतौर पर आम नागरिकों की शिकायतों के प्रति असंवेदनशील होते हैं और कभी कोई आवश्यक कदम उठाने में शीघ्रता नहीं दिखाते। यहां तक कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी अपनी जिम्मेदारी से बचते हैं और पर्यावरण संबंधी कानून इसलिए नहीं लागू किए जाते हैं क्योंकि ऐसे मामलों में कहीं न कहीं स्थानीय बाहुबली शामिल होते हैं और कानूनी प्रक्रिया का क्या नतीजा निकलेगा, यह तय नहीं होता। परंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि नगरपालिका पार्षदों और नगर निगमों के प्रमुख अधिकारियों पर फौजदारी मुकदमा चलाया जा सकता है।
यह निर्णय कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बेंगलूरु तथा अन्य नगरपालिकाओं के सात आयुक्तों (जो अलग-अलग समय पर पद स्थापित रहे) के बीच 14 वर्ष से चली आ रही कानूनी लड़ाई में दिया गया। यह मामला था कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बी हीरा नाइक के बीच का।
यह निर्णय भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कंपनी शब्द की व्याख्या की गई है और इसके दायरे का विस्तार करते हुए वैधानिक संस्थाओं को इसमें शामिल किया गया है। अदालत ने जोर देकर कहा कि नगर निगम के सरकारी विभाग होने की दलील दी जाती है लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि यह एक कॉर्पोरेट संस्थान है। चूंकि धारा 47 के तहत सभी निगम संस्थान कंपनी की परिभाषा के अधीन आते हैं इसलिए नगर परिषद भी इस दायरे में शामिल हैं।
ऐसे में हर उस व्यक्ति का उत्तरदायित्व बनता है जो अपराध घटित होते वक्त प्रभारी रहा हो और कंपनी के कारोबारी आचरण के लिए जिम्मेदार रहा हो। सजा से बचने के लिए उस व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि अपराध बिना उसकी जानकारी के हुआ या उसने अपनी तरफ से उचित सतर्कता बरती थी। जाहिर है जो पद पर रहे हों उनके लिए इसे साबित करने का बड़ा बोझ था। नगर पार्षदों की बात करें तो अब उनकी जवाबदेही कंपनी अधिनियम तथा नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स ऐक्ट के तहत निदेशकों की जवाबदेही से अधिक है।
उच्च न्यायालय ने इन अधिकारियों पर अभियोग समाप्त करते हुए कहा कि वे विभागों के प्रमुख थे, न कि किसी कंपनी के कार्याधिकारी। ऐसे में अभियोजन को सरकार की मंजूरी भी आवश्यक थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय गलत था और इन पर कार्रवाई के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं। बोर्ड ने आरोपित आयुक्तों को उपचारित सीवेज छोडऩे की मंजूरी प्रदान की थी जबकि यह 2006 में समाप्त हो चुका था और जिसका नवीनीकरण नहीं किया गया था। वे निरंतर इस अनुपचारित सीवेज अवशिष्टï को तालाबों, झीलों और अन्य प्राकृतिक जल स्रोतों में मिलने दे रहे थे। इस निर्णय के बाद प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को यह अधिकार मिला है कि वे जल एवं वायु संरक्षण के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ अभियोग चला सकें। कानून में अपराधों की सूची का ब्योरा भी पेश किया गया है। संक्षेप में कहें तो किसी व्यक्ति को जानते-बूझते कोई विषाक्त या प्रदूषक तत्त्व किसी जल धारा, कुएं, सीवर या जमीन में नहीं मिलने देना चाहिए। जो भी इन प्रावधानों का उल्लंघन करेगा, उसे अधिकतम छह वर्ष तक के कारावास और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।
हाल के दिनों में अदालत पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के मामलों में कड़े आदेश सुनाती रही है। दो सप्ताह पहले दिए एक आदेश में उसने दिल्ली के निकट नोएडा के प्राधिकारियों को आदेश दिया कि एक गांव की जल धाराओं का पुनरुद्धार करें, उनका रखरखाव करें और उन्हें संरक्षण प्रदान करें। जितेंद्र सिंह बनाम पर्यावरण मंत्रालय के इस मामले में परंपरागत जल स्रोतों को औद्योगिक इकाइयों के फायदे के लिए पाटा जा रहा था।
इससे पर्यावरण नियमों का उल्लंघन हो रहा था। आम लोगों ने पहले भी जनहित याचिकाएं लगाई हैं। इनमें सबसे पहला है सन 1980 का रतलाम नगर निगम मामले का फैसला। सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश के रतलाम नगर निगम को एक स्थान की साफ-सफाई कराने का आदेश देते हुए कहा था कि बजट की बाधा किसी नगर निगम द्वारा सफाई जैसे बुनियादी काम की अनदेखी करने का बहाना नहीं हो सकती। उक्त फैसला पढऩे में तो अच्छा है लेकिन रतलाम की यात्रा करने पर पता चल जाता है कि उस फैसले का जमीनी अमल न के बराबर हो रहा है। उसके बाद आया एम सी मेहता का मामला जिसमें अदालत अभी भी आदेश जारी कर रही है। सन 1996 में एमआईटी से स्नातक करने वाली पहली महिला इंजीनियर अल्मित्रा पटेल ठोस कचरे को लेकर अदालत गईं। साल दर साल आए अदालती आदेशों के बावजूद हालात और खराब ही हुए हैं। हाल में सरकार ने इस विषय पर 850 पृष्ठों का एक शपथ-पत्र दिया है। न्यायाधीशों ने कहा कि कागजों का यह बंडल अपने आप में ठोस कचरा है।
अब तक प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ सबसे प्रमुख कारक सामाजिक कदम और क्षतिपूर्ति के होते थे। कर्नाटक का फैसला प्रदूषण बोर्डों को यह अधिकार देता है कि वे नगर निकायों के अधिकारियों के खिलाफ कदम उठा सकें। जनहित याचिकाओं में दिए जाने वाले निर्णयों की तुलना में आपराधिक प्रक्रिया अधिक प्रभावी साबित होगी। बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि क्या नियामकों में इतना साहस होगा कि वे शहरों के नामियों-गिरामियों और संस्थाओं के खिलाफ अभियोग चला सकें।

Date:26-12-19

राज्यों का असहयोग, केंद्र के विकल्प

कुछ राज्य अगर राजनितिक कारणों से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की प्रक्रिया में सहयोग नहीं देते, तो कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं

हरबंश दीक्षित, (विधि विशेषज्ञ)
बीते कुछ समय से कुछ राज्य सरकारों द्वारा केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों को मानने से इनकार करने की परंपरा अब चिंता का विषय बनती जा रही है। नागरिकता संशोधन कानून के बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर कुछ राज्यों का रुख इसका ताजातरीन उदाहरण है। पिछले दिनों राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर पर पैदा हुए गहरे विवाद के बाद कुछ लोगों ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर दरअसल नागरिक रजिस्टर की ही पूर्वपीठिका है। इसी के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि वह जनसंख्या रजिस्टर की प्रक्रिया से अपने राज्य को अलग रखेगी। इसके बाद तो कई गैर-भाजपा शासित राज्यों ने ऐसी ही घोषणा कर दी। इसके बाद से यह सवाल महत्वपूर्ण हो गया है कि अगर कुछ राज्य इस प्रक्रिया में भाग नहीं लेते, तो केंद्र सरकार के पास क्या विकल्प बचेंगे?
संघात्मक शासन व्यवस्था में कई बार केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग राजनीतिक दर्शन और परस्पर विरोधी राजनीतिक हित होते हैं, इसलिए संघीय व्यवस्था को कभी-कभी इस दौर से गुजरना कोई नई बात नहीं है, किंतु ऐसे हालात से निपटने के लिए स्पष्ट सांविधानिक ढांचे तथा विवेकशील राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत पड़ती है। हमारे संविधान निर्माता इन संभावनाओं से अनभिज्ञ नहीं थे, इसीलिए संविधान में ऐसे हालात से निपटने के लिए व्यापक दिशा-निर्देशों को लिपिबद्ध किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 73 में केंद्र के क्षेत्राधिकार के बारे में बताया गया है। इसके दो भाग हैं। पहले भाग में कहा गया है कि केंद्र सरकार के अधिकार का विस्तार उन सभी मामलों में है, जिन पर कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। इसके अलावा केंद्र सरकार का अधिकार उन विषयों पर भी है, जिन पर केंद्र सरकार को किसी अंतरराष्ट्रीय संधि के क्रियान्वयन के लिए जरूरी कदम उठाने हों। संविधान के अनुच्छेद 256 के अनुसार, राज्य सरकारों का यह दायित्व है कि वे संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन सुनिश्चित करें और इसमें केंद्र सरकार को अधिकार दिया गया है कि वह उन कानूनों के पालन के लिए जरूरी निर्देश जारी कर सकती है।
इसी तरह, अनुच्छेद 257(1) में कहा गया है कि राज्य सरकार अपने अधिकारों का उपयोग ऐसी रीति से करेगी, जिससे केंद्र सरकार के अधिकारों के उपयोग में किसी तरह की बाधा पैदा न हो। इसमें यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार अपने निर्देशों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यकता पड़ने पर जरूरी दिशा-निर्देश भी जारी कर सकती है। अनुच्छेद 257(2) में राष्ट्रीय महत्व के तथा सेना से जुड़े संचार माध्यमों की सुरक्षा और अनुच्छेद 257(3) रेलवे की परिसंपत्तियों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार को जरूरी दिशा-निर्देश देने का अधिकार दिया गया है। केंद्रीय महत्व के अलग-अलग मामलों में केंद्र सरकार को इसी तरह के अधिकार संविधान के कुछ और अनुच्छेद में दिए गए हैं।
केंद्र सरकार के पास अपना इतना बड़ा ढांचा नहीं हो सकता कि वह अपने कानूनों को खुद लागू करे। उसे अपने कानूनों को राज्यों के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के जरिए ही लागू करना होता है। हमारे संविधान निर्माताओं को केंद्र-राज्य संबंधों की जटिलता का अंदाजा था। इसीलिए संविधान सभा में इस बात पर भी गहन चर्चा हुई कि यदि कोई राज्य केंद्र सरकार के निर्देशों को मानने से इनकार कर दे, तो केंद्र के पास क्या विकल्प होंगे? व्यापक विचार-विमर्श के बाद संविधान में इसके लिए अनुच्छेद 365 को लिपिबद्ध किया गया। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि यदि संविधान में वर्णित किसी अधिकार के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा दिए गए निर्देश का अनुपालन करने में कोई राज्य असफल रहता है, तो इस आधार पर अंतिम विकल्प के रूप में उस राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 365 हमारे संविधान शिल्पियों के आलेखन-शिल्प का अनुपम उदाहरण है। इसके द्वारा केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के महत्व को स्पष्ट कर दिया गया है तथा उसके साथ ही राजनीतिक शिष्टाचार और संयम की संभावना को भी बरकरार रखा गया है। इसकी शब्दावली यह स्पष्ट संदेश देती है कि केंद्र के दिशा-निर्देशों को न मानने पर राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है, किंतु इसके साथ ही राजनीतिक विवेक से अपेक्षा की गई है कि राजनीति में ऐसी कठोर कार्रवाई से यथासंभव परहेज किया जाना चाहिए। वे अक्सर विवाद को सुलझाने की बजाय जटिल करते हैं। हम लोग निश्चित रूप से उन कुछ सफल देशों की जमात में शामिल हैं, जहां राजनीतिक नेतृत्व ने विवेकपूर्ण निर्णय लिया है। हमारे गणतंत्र के इतिहास में केंद्र के निर्देश को नहीं मानने के आधार पर कभी राष्ट्रपति शासन नहीं लगा है।
केंद्र के निर्देशों के पालन को लेकर अमेरिका और कनाडा को कई बार अरुचिकर स्थितियों का सामना करना पड़ा। हमारे यहां इनकी संख्या इतनी कम है कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। केंद्रीय बलों की तैनाती को लेकर केरल सरकार से मतभेद और एक बार पश्चिम बंगाल की ज्योति बसु सरकार का केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के पालन से इनकार के अलावा कोई बड़ा उदाहरण हमारे पास नहीं है। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर भी केंद्र और राज्यों के बीच बहुत गंभीर मतभेद थे। इन सभी मामलों में एक बात पर सदैव सहमति रही कि इस तरह के राजनीतिक विवादों का निपटारा संविधान के दायरे में ही हो, इसीलिए केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया गया। सरकारिया आयोग ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए उस पर व्यापक दिशा-निर्देश दिया, किंतु अनुच्छेद 256, 257, 339, 350, 365 में समीक्षा की आवश्यकता नहीं महसूस की।
लोकशाही में लोकरंजना का अपना अलग महत्व होता है। कोई राजनेता अपने को उससे अलग नहीं रख सकता, क्योंकि सत्ता की चाबी तो आम जनता के पास ही होती है। इसे बचाने के लिए कई बार ऐसा भी होता है कि उनका आचरण संविधान के तकनीकी दायरे से अलग हो जाता है। संविधान की कभी-कभार अनदेखी करना और लोकप्रियता के लिए बयान जारी कर देना अजूबी बात नहीं है, किंतु उसका स्थाई भाव होना उचित नहीं है। राजनीति मूलत: इस तरह की परस्पर विरोधी परिस्थितियों के प्रबंधन का ही कौशल है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर उठे विवाद के बीच यही वह मौका है, जब केंद्र सरकार को अपना प्रबंधन कौशल दिखाना होगा।

Date:26-12-19

रेलवे में सुधार

संपादकीय
भारतीय रेलवे में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया न केवल स्वागतयोग्य है, बल्कि दूसरे क्षेत्रों के लिए अनुकरणीय भी है। सरकारी उपक्रमों में रेलवे देश की सबसे बड़ी कंपनियों में शुमार है और एक साथ सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार भी रेलवे के जरिए ही नसीब होता है। अत: रेलवे में किसी भी तरह का सुधार सीधे देश की रोजी-रोटी से जुड़ा मामला है। केंद्र सरकार ने 114 साल पुराने रेलवे बोर्ड के ढांचे को बदलने का फैसला कर लिया है, जो एक तरह से बहुप्रतीक्षित था। भारतीय रेलवे बोर्ड का ढांचा आज तक सामंती मानसिकता वाला रहा है।
बोर्ड के जिम्मे काम तो बहुत रहे हैं, लेकिन उसमें जवाबदेही और सेवा गुणवत्ता का जो जरूरी स्तर होना चाहिए, उसका सदा से अभाव रहा है। रेलवे के तहत आने वाली आठ सेवाओं को मिलाकर एक सेवा गठित करना एक ऐसा फैसला है, जिसकी वकालत और चर्चा लंबे समय से होती रही है। विगत 25 वर्षों में पांच से ज्यादा समितियां रेलवे सेवाओं के एकीकरण की सिफारिश कर चुकी हैं। पर इन सिफारिशों को पहले ही क्यों नहीं मान लिया गया? आज जो लाभ गिनाए जा रहे हैं, यह काम तो पहले भी हो सकता था? इसीलिए रेलवे के बारे में लिया गया यह फैसला अनुकरणीय है। अन्य सरकारी विभागों को भी चुस्त-दुरुस्त करने के बारे में जो अच्छी सिफारिशें प्रस्तावित हैं, उनके लिए कदम तेजी से बढ़ाने चाहिए।
रेलवे का ढांचा न केवल सामंती रहा है, बल्कि उसके जरिए सत्ता का संतुलन बनाने-बिठाने की कोशिशें भी पुरानी हैं। ज्यादा से ज्यादा अधिकारियों को खुश करने और प्रभारी होने का एहसास कराने के लिए भी जरूरत से ज्यादा सेवाएं या पद गठित कर दिए जाते हैं। एक लोक-कल्याणकारी राज्य शक्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है, लेकिन यह भी परखना चाहिए कि इस विकेंद्रीकरण से क्या वाकई लोक-कल्याण का लक्ष्य पूरा हो रहा है? अच्छी बात है, अब केंद्र सरकार यदि एकीकरण, पदों या सेवाओं की संख्या में कटौती का फैसला ले चुकी है, तो उसे अपने फैसले को सेवा की गुणवत्ता व जवाबदेही सुनिश्चित करके सफल साबित करना होगा। बदलाव जरूरी हैं, लेकिन उससे भी जरूरी है कि इन बदलावों का लाभ रेलवे और देश को मिले। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि सरकार रेलवे में गुटबाजी खत्म करना चाहती है, लेकिन लोगों का गुटबाजी से नहीं, बल्कि रेल सेवाओं से सरोकार है। क्या गुटबाजी खत्म होने से रेलवे का कामकाज वाकई तेजी से सुधरने लगेगा और रेलवे को आर्थिक लाभ होने लगेगा?
अगर एकीकृत भारतीय रेल प्रबंधन सेवा रेलवे के समेकित विकास का कारण बने, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। फिर भी सुधार की चुनौतियां अभी कम नहीं हुई हैं। यह देखना होगा कि वह कौन लोग या कौन-सी मनोवृत्ति है, जो 25 साल से इस सुधार के मार्ग में बाधा बनी हुई थी? कौन लोग थे, जो सुधार की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे? कौन लोग हैं, जिन पर इन ताजा सुधारों को सफल साबित करने की जिम्मेदारी है? नए रोजगारों का इंतजार कर रहे देश में रेल अफसरों-कर्मचारियों की संख्या आधी करने की चर्चा कितनी कारगर है? क्या हम धीरे-धीरे रेलवे के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं? निस्संदेह, आज रेलवे ऐसे अनगिन प्रश्नों व समस्याओं से घिरा हुआ है और उत्तरों व समाधानों का सबको इंतजार है।

Date:26-12-19

अनर्थ करता पर्यावरणीय असंतुलन

पंकज चतुव्रेदी
देश की खारे पानी की सबसे बड़ी झील राजस्थान की सांभर झील में अभी तक 25 हजार से ज्यादा प्रवासी पंछी मारे जा चुके हैं। पक्षियों की इतनी भयानक मौत पर राजस्थान हाई कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया है। राज्य सरकार से 2010 में भी लगभग इसी तरह हुई पक्षियों की मौत के बाद गठित कपूर समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के अमल की जानकारी मांगी है। सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान शून्य से चालीस डिग्री तक नीचे जाने लगता है, तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं।
भारत में खारे पानी की सबसे विशाल झील ‘‘सांभर’ का विस्तार 190 किमी. व लंबाई 22.5 किमी. है। अधिकतम गहराई तीन मीटर तक है। अरावली पर्वतमाला की आड़ में स्थित झील राजस्थान के तीन जिलों-जयपुर, अजमेर और नागौर तक विस्तारित है। 1996 में 5,707.62 वर्ग किमी. जल ग्रहण क्षेत्र वाली झील 2014 में 4700 वर्ग किमी. में सिमट गई। चूंकि भारत में नमक के कुल उत्पादन का लगभग नौ फीसद-196000 टन-नमक यहां से निकाला जाता है, इसलिए नमक माफिया यहां जमीन पर कब्जा करता रहता है। इस साल दीपावली बीती ही थी कि हर साल की तरह सांभर झील में विदेशी मेहमानों के झुंड आने शुरू हो गए। नये परिवेश में वे खुद को व्यवस्थित कर पाते कि उससे पहले ही उनकी गर्दन लटकने लगी, पंख बेदम हो गए, न चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। लकवा जैसी बीमारी से ग्रस्त पक्षी तेजी से मरने लगे। एनआईएचएसडी भोपाल का दल आया। उसने सुनिश्चित कर दिया कि मौत र्बड फ्लू के कारण नहीं हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान बरेली के एक दल ने मृत पक्षी के साथ-साथ वहां के पानी और मिट्टी के नमूने लिए और जांच कर बताया कि मौतों का कारण ‘‘एवियन बटुलिज्म’ नामक बीमारी है। यह बीमारी ‘‘क्लोस्ट्रिडियम बटूलिज्म’ नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। आम तौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। सांभर झील में भी यही पाया गया कि मारे गए सभी पक्षी मांसाहारी प्रजाति के थे। लेकिन बहुत से वैज्ञानिक मौतों के पीछे ‘‘हाइपर न्यूट्रिनिया’ को मानते हैं। नमक में सोडियम की मात्रा ज्यादा होने पर पक्षियों के तंत्रिका तंत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे खाना-पीना छोड़ देते हैं, और उनके पंख व पैर में लकवा हो जाता है। कमजोरी के चलते प्राण निकल जाते हैं। माना जा रहा है कि पक्षियों की प्रारंभिक मौत हाइपर न्यूट्रिनिया से ही हुई। बाद में उनमें ‘‘एवियन बटुलिज्म’ के जीवाणु विकसित हुए और ऐसे मरे पक्षियों का जब अन्य पंछियों ने भक्षण किया तो बड़ी संख्या में उनकी मौत हुई। बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि मेहमान पक्षियों की मौत के मूल में सांभर झील के पर्यावरण के साथ लंबे समय से की जा रही छेड़छाड़ भी है। सांभर सॉल्ट लिमिटेड ने नमक निकालने के ठेके कई कंपनियों को दे दिए जो मानकों की परवाह किए बगैर गहरे कुंए और झील के किनारे दूर तक नमकीन पानी एकत्र करने की खाई बना रहे हैं। फिर परिशोधन के बाद गंदगी को इसी में डाल दिया जाता है। विशाल झील को छूने वाले किसी भी नगर-कस्बे में घरों से निकलने वाला हजारों लीटर गंदा-रासायनिक पानी हर दिन झील में मिल रहा है। जलवायु परिवर्तन की त्रासदी है कि इस साल औसत से कोई 46 फीसदी ज्यादा पानी बरसा। इससे झील के जल ग्रहण क्षेत्र का विस्तार हो गया। चूंकि इस झील में नदियों से मीठे पानी की आवक और अतिरिक्त खारे पानी को नदियों में मिलने वाले मागरे पर भयंकर अतिक्रमण हो गए हैं, इसलिए पानी में क्षारीयता का स्तर नैसर्गिक नहीं रह पाया।
भारी बरसात के बाद यहां तापमान फिर से 27 डिग्री के पार चला गया। इससे पानी का क्षेत्र सिकुड़ा और उसमें नमक की मात्रा बढ़ गई। इसका असर झील के जलचरों पर भी पड़ा। हो सकता है कि इसके कारण मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे पहुंचे पक्षियों ने खा लिया हो और उससे ‘‘एवियन बटुलिज्म’ के बीज पड़ गए हों। सांभर सॉल्ट लिमिटेड ने झील का एक हिस्सा एक रिसॉर्ट को दे दिया है। यहां का सारा गंदा पानी इसी झील में मिलाया जाता है। जब पंछी को ताजी मछली नहीं मिलती तो झील में तैर रही गंदगी, मांसाहारी भोजन के अपशिष्ट या कूड़ा खाने लगता है। ये बातें भी पक्षियों के इम्यून सिस्टम के कमजोर होने और उनके सहजता से विषाणु के शिकार हो जाने के कारक हैं। पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी अपने प्राकृतिक पर्यावास में मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान हैं। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।

Important News Clippings


Date:27-12-19

A More Progressive Act

J&K RTI law provided a time-frame for disposal of appeals

Raja Muzaffar Bhat
One of the reasons given by the Narendra Modi government for making Article 370 redundant was that the “special status” had deprived the people of Jammu and Kashmir of various rights that the rest of India enjoyed, as central laws were not applicable in the state. That assertion is inaccurate for many reasons. But I want to focus on the claim that the Right to Information Act (RTI) was not applicable to the state.
To put the record straight — I was unable to do so earlier as I was detained for three months — the J&K state legislature enacted the legislation for RTI in 2004, a full year before the national legislation. It was a carbon copy of the Freedom of Information Act 2002, passed by the Atal Bihari Vajpayee-led NDA government. However, the 2002 law was not operationalised by the government as RTI activists had pointed out several shortcomings with it.
In its 2004 Lok Sabha election manifesto, the Congress had promised to come up with a strong access to information law. This was enacted in 2005 during the UPA I government. As J&K had seen much corruption and misgovernance, a group of us in Kashmir had launched a movement to mobilise public opinion in favour of ensuring the applicability of the central law to the state. We urged the then state government, headed by Ghulam Nabi Azad, to amend the J&K RTI Act 2004 to include provisions contained in the RTI Act 2005.
I even wrote to the then Chief Justice of J&K High Court, B A Khan. The J&K High Court division comprising the then Chief Justice B A Khan and Justice J P Singh sought a response from the government. Subsequently, the J&K government brought an RTI amendment bill in 2007 and another one in 2008. But, the amendments were not at par with the national RTI law and our struggle continued.
Around October 2008, when the dates of that year’s assembly elections were announced, we started lobbying the political parties in the state for a strong RTI law. We were able to persuade the National Conference leader Omar Abdullah and CPM leader M Y Tarigami to make RTI a part of their parties’ election manifesto, which they did. The National Conference won the election, and soon after taking charge, the government enacted the RTI law with all the amendments we had campaigned for.
The J&K RTI Act 2009 was almost a carbon copy of the central RTI Act 2005. But, on some counts, it was more progressive. In the central law, there is no time-frame to dispose of the second appeal filed when it reaches the state or the Central Information Commission. But under the 2009 J&K law (now repealed), the State Information Commission (SIC) was required to dispose of the second appeal within four months. This time-bound provision ensured a better justice delivery mechanism, and is the reason for the least pendencies of appeals before the SIC as compared to the Central Information Commission and some other state commissions.
As someone who gave several years of his life advocating for the J&K RTI Act 2009, its repeal feels like a personal loss. J&K is now governed by the RTI Act 2005. How it will be implemented is still unclear. Most likely, the state will not have a SIC as union territories don’t have the power to establish them. In 2006, Puducherry established a SIC. But, it was wound up on July 20, 2007, on the direction of the Union Home Ministry. The matter is pending before the Madras High Court.
On November 28, the J&K administration constituted a committee headed by the secretary, general administration department, to examine if it will be clubbed with the CIC for RTI related matters or whether it would have a separate information commission. If it does not, appellants and complainants will need to make the long journey to the CIC in New Delhi. Faced with this, many might give up on their right to information.
The J&K Law Commission has recommended the constitution of a J&K SIC. But the final decision is awaited. Even if the SIC is set up, the central law has been watered down so much over the past few months that it would not have the same effect as that of the J&K RTI Act 2009.

Date:27-12-19

Disrupting the gender-blind political discourse in India

Affirmative action can empower more women

Pulapre Balakrishnan , [ is Professor, Ashoka University and Senior Fellow, IIM Kozhikode]
India is believed to be resolutely moving forward as an economic entity. Not even the currently slowing growth takes away from this perception. Added to this is a celebration of the Constitution undergirding our democracy. So here, it would seem, is a country forging ahead economically while upholding freedoms for its people. Recent reports of gruesome assaults on women, involving rape and ending with murder, have jolted this narrative.
Democracy in India is directly impugned when the accused men allegedly receive protection from the ruling dispensation, as is the case in Uttar Pradesh, or when the police force fails to protect women, as was the case in Telangana. In a democracy where the political class deploys identity politics to capture power, it is striking that not only is the case of women left scrupulously untouched, their very existence is increasingly under threat from misogyny in society.
When a society adopts democracy as its form of governance, it presumes the beginning of a social transformation. It is acknowledged that this should entail the elimination of religiously endorsed privileges, the ending of domination by some over others and a general ushering in of equality of opportunity. This process is abetted by economic growth and the emergence of markets, which enable people to shed the constraints that have held them back. This is a more or less universal trajectory, though it first occurred in Western democracies.
Emancipation movements
While this process took a long time, it gathered speed after the Second World War when an economic boom unleashed emancipation movements, particularly in the U.S., which had as their focus black rights, feminism and sexual liberation. Why has India not had anything even close, movements that constitute the social transformation that must accompany democracy if the latter is to achieve its ends? This is often answered by recourse to the ‘fatalistic attitude bred by Indian culture’. This we see to be false when we recognise the differentiation whereby not everyone is at the receiving end, most evident in the case of violence against women.
It is difficult to think of any part of the world where historic inequity has been removed entirely through the agency of the oppressed. An end to the most overt forms of domination of women in the U.S. came after at least half a century of education, which enabled women to imagine a life crafted by themselves. Education further enabled them to be economically independent, sloughing off the patriarchal norm that had bound them for ages.
Role of the public sector
The greater part of the spread of education in the U.S. was through public school system. By comparison, in India, very little of the myriad public policy interventions has been directed towards women’s empowerment. Girls stop attending school due to the absence of functioning toilets there and women drop out of the labour force as they do not feel safe when travelling to work. This also restrains economic progress.
The empowerment of religion via ‘Indian secularism’ and a caste-laden political discourse has served to keep out a public discussion of the ‘women’s question’ in India. It is not difficult to see that India’s politics as ‘honour among men’ leaves patriarchy secure from challenge. The opposition of caste-based political parties to the Women’s Reservation Bill only reflects this. They have no credible argument and rely solely on their numbers in a fractured polity. Affirmative action aimed at a far greater inclusion of women in India’s institutions of governance, especially the police and the judiciary, is central to ending the violence against women. India’s gender-blind political discourse needs disruption.

महत्वपूर्ण समाचार

क्या इस दूसरी दुनिया के लिए तैयार है देश ?

कावेरी बामजई
हमारे देश का वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर पे गैप स्केल पर पांच अंक फिसलकर 112 पर आ जाना हैरानी वाला नहीं है। भारत की महिलाएं पुरुषों से 19% कम कमाती हैं। मॉन्सटर सैलेरी इंडेक्स सर्वे की मानें तो उनके और पुरुषों के बीच आय के गैप एक साल पहले तक 20% था जो 2018 में महज 1 प्रतिशत घटा है। भारत में ‘वुमन इन वर्कफोर्स’ से जुड़े सभी इंडीकेटर्स में गिरावट आई है।
2017 में प्रकाशित प्यू रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक 144 देशों में वर्कफोर्स में भारतीय महिलाओं की मीडियन शेयरिंग 45.4 फीसदी है जबकि मार्च 2017 में वर्कफाेर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 25.9 फीसदी रही। यह सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले निचले 10 देशों में शामिल है। यह डेटा 2010 से 2016 के बीच का है। इससे भी खराब बात है कि 2017-18 के एनएसएसओ के डेटा के मुताबिक वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी गिरकर 23.3 प्रतिशत पर आ गई। तो आखिर हो क्या रहा है? क्या वजह है कि स्कूल और कॉलेज की परीक्षा में अव्वल आनेवाली बेटियां अचानक से अदृश्य हो जाती हैं? महिलाओं के यूं खो जाने की दिक्कत के कई कारण हैं- किसानी में उनकी भागीदारी में कमी, खेती से हुई उपज में महिलाओं का योगदान कुल मजदूरी का 55-66 प्रतिशत है। एक बड़ा कारण शादी और मातृत्व भी है। देश में महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए सर्वे एक अहम जरिया हो सकते हैं। खासकर तब जब महिला सशक्तीकरण के मसले पर नए कानून और भाषा गढ़ी जा रही है। छेड़छाड़ जैसे कम खतरनाक सुनाई देने वाले शब्दों को अब और ज्यादा सटीक तौर पर यौन उत्पीड़न कहा जाता है। कॉरपोरेट दुनिया में 26 हफ्तों की मेटरनिटी लीव है। वर्कफोर्स में महिलाओं की मौजूदगी बरकरार रखने को उन्हें दूसरा मौका और फ्लेक्सी टाइम की सुविधा दी जा रही है।
हम अपने इतिहास को भूल जाते हैं कि औरतों ने क्या आंदोलन किए है, जिसकी बदौलत हमें अपने ये हक मिले हैं। महिलाओं की पढ़ाई के योगदान की अहमियत को समझना होगा, जो भारत में महिलाओं के आंदोलन से सीधे जुड़ा है। कमेटी ऑन स्टेटस ऑफ वुमन इन इंडिया (सीडब्ल्यूएसआई ) द्वारा 1974 में पब्लिश ‘बराबरी की ओर’ भारत में महिलाओं की स्थिति पर पहली रिपोर्ट थी, जिसने मथुरा दुष्कर्म मामले के आसपास घूमते नवागत महिलाओं के आंदोलन को सैद्धांतिक और व्यावहारिक संरचना दी। सीडब्ल्यूएसआई का गठन सरकार ने 1972 में किया था। ‘बराबरी की ओर’ रिपोर्ट में महिलाओं के स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक स्थिति और राजनीतिक भागीदारी की जानकारियां शामिल थीं। रिपोर्ट से जो मालूम हुआ उसने इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च आईसीएसएसआर को यूनिवर्सिटी में वुमन स्टडी यूनिट के प्रोजेक्ट्स को फंड देने के लिए प्रोत्साहित किया। ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारत में हायर एजुकेशन में लड़कियों की संख्या बढ़कर 47.6% हुई है। वुमन स्टडी ने छात्रों को संघर्ष समझने और वैचारिक आधार तैयार करने का जरिया दिया है। इससे निचले तबकों की एक व्यापक दस्ते के साथ पहचान बनी है, फिर भले वह जाति के आधार पर हो या धर्म या जेंडर के। यह इसलिए अहम है क्योंकि महिलाओं की परेशानियां समाज की परेशानियां हैं और इसका हल बहुविषयक है।
2012 में निर्भया दुष्कर्म मामले से विरोध प्रदर्शनों की नए स्तर पर शुरुआत हुई। पिंजरा तोड़ जैसे आंदोलन यूनिवर्सिटी कैम्पस में बेतरतीब कर्फ्यू लगाने के विरोध में खड़े हुए। 2017 में मीटू मामलों ने आंदोलनकारी राजनीति को नई ऊर्जा दी। बाकी कई बातों की तरह ही भारत में बदलाव कई स्तर पर जरूरी है। बुनियादी मुद्दे जैसे, स्वास्थ्य और शिक्षा में इंडिकेटर्स निचले स्तर पर हैं लेकिन उनमें सुधार हो रहा है। विकासशील देशों में से भारत में सबसे ज्यादा कुपोषित महिलाएं हैं। 2000 में हुए शोध के मुताबिक 75 प्रतिशत गर्भवती और 70 प्रतिशत अन्य महिलाओं में आयरन की कमी है। पिछले दो दशकों मंे मातृ मृत्यु दर कई विकसित देशों के मुकाबले काफी ज्यादा है। 1992 से 2006 के बीच दुनियाभर में जन्म देने के दौरान हुई मौत में से 20 प्रतिशत भारत में हुई थीं। 2011 के जनसंख्या सर्वे के मुताबिक 0-6 वर्ष के बच्चों के जेंडर अनुपात में लंबे वक्त से ज्यादा पुरुष ही हैं। शिक्षा की बात करें तो दुनिया मंे महिलाओं की शिक्षा का औसत रेट 79.7 प्रतिशत है, जबकि भारत में 65.46 प्रतिशत। चर्चा तो महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य, नौकरीपेशा महिलाओं के बच्चों के लिए डे केयर सेंटर की सुविधा देने और कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ हुए यौन शोषण के आरोपों में न्याय देने की भी हो रही है। विवाद मुस्लिम महिलाओं के पर्सनल लॉ और एलजीबीटी के कानूनों को लेकर भी हो रहे हैं। इन बदलावों का असर साफ है, कि ये महिलाओं की नई पीढ़ी का उदय है, जो कॉलेज कैम्पस और सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहीं हैं। ये नई पीढ़ी बेखौफ है, यह पढ़ी लिखी और महत्वाकांक्षी महिलाओं की पीढ़ी है, जो बेहद सुखद है। लेकिन यह पितृसत्तात्मक तबके के लिए परेशानी है। जिसने अपनी महिला नागरिकों के लिए नौकरी, घर और सार्वजनिक स्थलों पर पर्याप्त प्रावधान नहीं दिए हैं।
महिलाओं को प्रभावित करने वाले तीन महत्वपूर्ण इलाके, शिक्षा, स्वास्थ्य और लॉ एंड ऑर्डर अहम हैं। हम महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन, आवागमन के लिए सुरक्षित स्थान, बेहतर सुविधाओं वाले स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मुहैया कराने में असफल रहे हैं। एक ओर जहां अमीर शुद्ध हवा, सुरक्षित परिवहन, प्राइवेट स्कूल-कॉलेज और फाइव स्टार सुविधाओं वाले अस्पताल का फायदा उठा सकते हैं, गरीबों के पास ये कुछ भी नहीं है। पर क्योंकि भारत में महिलाओं के आंदोलन में दिखाया है कि तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता जब तक हर कोई आगे न बढ़े। जैसा कि अरूंधती रॉय ने एक बार लिखा था, दूसरी दुनिया मुमकिन है, क्योंकि ‘वह’ आ रही है। सवाल यह है कि क्या भारत इसके लिए राजी है?

Date:28-12-19

हुकूमत में ज्यादा महिलाओं के होने के नफा-नुकसान

संपादकीय
पिछले हफ्ते अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, यदि ज्यादा महिलाएं सत्ता में आएं तो युद्ध की आशंका कम होगी। उन्होंने यह भी कहा कि किसी देश में ज्यादा महिला नेता होने पर वहां के बच्चों की तबियत सुधरेगी और आम लोगों का जीवन स्तर भी बेहतर होगा। यूं तो बराक ओबामा पहले भी इस तरह की बातें कहते रहे हैं और ये कोई नई बात नहीं है। पर उनकी महिलाओं को हुकूमत में अहमियत देने की बात इसलिए जरूरी हो जाती है क्योंकि हाल ही में सना मरीन फिनलैंड की प्रधानमंत्री बनी हैं और उनकी उम्र दुनिया में प्रधानमंत्री बनने वालों में सबसे कम है।
बात यह तारीफ की है लेकिन सच तो है कि पुरुषों की इस दुनिया में औरतें अस्तित्व के लिए आज भी जद्दोजहद कर रही है। किसी देश को पहली महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति मिलने को अब भी सुर्खियों में जगह मिलती है। अमेरिका जैसे देश में भी अब तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी है। रिसर्च की मानें तो सत्ता में महिलाओं के होने से सरकार की शांतिपूर्ण नीतियां बनाने की संभावना बढ़ जाती है। पर दूसरी ओर यदि जमीनी उदाहरणों को गिनने जाएं तो उन देशों में जहां पीएम या राष्ट्रपति महिला हैं, उनके ज्यादा उग्र विवादों में शामिल होने के किस्से देखने को मिलते हैं। शायद इसलिए क्योंकि दुनिया में कई देशों के समाज महिला नेताओं को कमजोर मानते हैं। और इस छवि को झूठा साबित करने के लिए महिला नेता कई बार कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी और 1971 के उस युद्ध का जिक्र किया जाना लाजमी है जो बांग्लादेश के जन्म का कारण बना।
वरना लकीर के फकीर तो यही मानते हैं कि महिलाएं राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों को निपटाने-सुलझाने के लिए जरा भी उपयुक्त नहीं। 2002 के एक वैश्विक सर्वे में शामिल 61 प्रतिशत लोगों ने माना था कि पुरुष किसी देश के सैन्य संकट को निपटा सकते हैं। जबकि सिर्फ 3 प्रतिशत लोगों ने महिलाओं पर भरोसा जताया था, वहीं बाकी बचे लोगों ने दोनों को बराबर वोट दिए थे। हुकूमत में महिलाओं के होने से नफा और नुकसान की गणना से पहले बड़ा सवाल यह है कि राजनीति और नेतृत्व वाले इलाकों में उन्हें किस हद तक स्वीकार किया गया है? उन्हें कब तक अस्तित्व के लिए लड़ना होगा और कब तक उनकी हुकूमत को ट्रॉफी की तरह देखा जाएगा?

Date:27-12-19

भूजल का प्रबंधन

संपादकीय
भूजल का गिरता स्तर और इसकी वजह से भविष्य में गहराने वाले संकट के मसले पर पिछले कुछ सालों से लगातार चर्चा होती रही है। इस चिंता के मद्देनजर न केवल भारत, बल्कि वैश्विक पैमाने पर सम्मेलनों और सेमिनारों में आने वाले दिनों में पानी के अभाव को लेकर चेतावनी दी जाती रही है। लेकिन चिंता जताना और संकट का हल निकालना अलग-अलग बातें हैं। यह सही है कि सरकार की ओर से जल संरक्षण को लेकर कई कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं तो उनका मकसद चुनौतियों से पार पाना ही है। लेकिन यह भी सच है कि स्थानीय हालात और जरूरतों के आधार पर अगर कोई पहलकदमी होती है, तभी इस संकट से पार पाने की उम्मीद की जा सकती है। इस लिहाज से देखें तो बुधवार को लखनऊ में प्रधानमंत्री ने जिस ‘अटल भूजल योजना’ की शुरुआत की है, वह इस दिशा में एक अहम कदम है। अगर यह योजना अपने बुनियादी स्वरूप में जमीन पर उतरती है तो इससे फिलहाल सात राज्यों के आठ हजार तीन सौ पचास गांवों को लाभ मिलने की उम्मीद है।
दरअसल, भूजल के स्तर को लेकर चिंता लंबे समय जताई जाती रही है, लेकिन इस गहराती समस्या से निपटा कैसे जाए, इसकी दिशा अभी पूरी तरह साफ नहीं रही है। न केवल वर्षा से जल के संरक्षण के पहलू पर कोई बड़ी कार्ययोजना जमीन पर नहीं उतर पाई है, न अन्य स्रोतों की वास्तविक स्थिति का आकलन करके उसके समाधान को लेकर ठोस पहल हुई है। हालांकि ‘अटल भूजल योजना’ की शुरुआत के करीब छह महीने पहले भी प्रधानमंत्री ने पानी की एक-एक बूंद के संरक्षण को लेकर जागरूकता अभियान शुरू करने पर जोर दिया था। यह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भूजल के स्तर और समग्र पैमाने पर जल की उपलब्धता को लेकर सरकार फिक्रमंद जरूर है, लेकिन शायद एक समग्र योजना के साथ जमीनी अमल अभी बाकी है। समस्या यह है कि भारी पैमाने पर पानी का बेलगाम उपयोग और उसकी बर्बादी करने वाले बड़ी कंपनियों और संस्थानों पर शायद ही किसी की लगाम है। यह गांवों और शहरों में वर्षा जल के संरक्षण को लेकर सजगता नहीं होने और इससे पैदा होने वाली समस्या से इतर एक पहलू है, जिसमें भारी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। सवाल है कि जल संरक्षण को लेकर जताई जाने वाली चिंता के मद्देनजर क्या इस समस्या के बुनियादी पहलुओं पर भी गौर किया जाएगा?
देश में ऐसे तमाम इलाके हैं, जहां भूजल का स्तर चिंताजनक पैमाने तक नीचे चला गया है। इसका एक बड़ा असर फसलों के उत्पादन के चक्र पर पड़ा है, जिसमें सिंचाई के लिए ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलें बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। हाल के दिनों में यह राय सामने आई है कि सिंचाई के लिए जल के बढ़ते संकट के मद्देनजर कम पानी की जरूरत वाली वैकल्पिक फसलें उगाने और सूक्ष्म सिंचाई की ओर कदम बढ़ाने की जरूरत है। हालांकि यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में पानी के संरक्षण के कई पारंपरिक तौर-तरीके चलन में रहे हैं। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि आखिर किन वजहों से हम उन परंपराओं से दूर होते गए।
आखिर ऐसा कैसे मुमकिन हुआ कि अपने जीवन के स्रोत के रूप में पानी की अहमियत को गौण हो जाने दिया और नतीजतन आज भूजल के गिरते स्तर से लेकर प्यास तक एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने है। समाज और सरकार की जिम्मेदारी के बरक्स पानी आज लगभग पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया है। इतना तय है कि संकट का सही आकलन और उसके मुताबिक हल निकालने की कोशिश समय रहते शुरू नहीं की गई तो समस्या बेहद सकती है।