बदल रही है भारत की तासीर
अभय कुमार दुबे, (लेखक प्रख्यात राजनितिक चिंतक और विश्लेषक हैं)
नए नागरिकता कानून (सीएए) और नागरिक होने की प्रामाणिकता (एनपीआर और एनआरसी) को लेकर चल रही बहस ने आधुनिक भारत के आधारभूत विचार पर आरोपित किए जा रहे नए प्रारूप को एक बेरहम रोशनी में हमारे सामने पेश कर दिया है। वैसे यह प्रारूप इतना नया भी नहीं है। अस्सी के दशक से ही यह भारत के आधारभूत विचार में धीरे-धीरे सेंध लगा रहा था। सेंधमारी करने वाली शतियां उस समय सुपरिभाषित रूप से हिंदुत्ववादी नहीं थीं, पर केवल उनकेवस्त्र ही सफेद थे। उनमें और पिछले साढ़े पांच साल में चले सिलसिले में अंतर केवल यह है कि अब इस सेंध ने पूरी दीवार ही गिरा दी है। जो रिसाव था, वह अब प्रवाह में बदल गया है।
चार वैचारिक कल्पनाएं-
हिंदुत्व के नाम पर व्यायायित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भारत के विचार पर लगभग पूरी तरह छा गया है। हिंदुत्व का प्रतिनिधित्व करने वाली बीजेपी मजबूती से सत्ता में है, लेकिन चुनावी राजनीति के उतार-चढ़ाव के कारण इस दल के सत्ता से हटने की सूरत में भी भारत के विचार को उत्तरोत्तर हिंदुत्वमय होने से रोकने की संभावनाएं शेष नहीं रहने वाली। कुल मिला कर देश का अगला दशक बिना किसी संकोच के बहुसंयकवादी दशक होगा। संविधान अपनी जगह रहेगा, लेकिन, उसकी कृति के रूप में भारतीय राज्य और समाज केवल श दों में उसकी नुमाइंदगी करते दिखेंगे। हिंदुत्व के हाथों पलटा जा रहा भारत का बुनियादी विचार उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के दौरान परवान चढ़ा था। उसकी शल-सूरत बीसवीं सदी की शुरुआत में उभरी चार राष्ट्रव्यापी वैचारिक कल्पनाओं के बीच मुठभेड़ और सहयोग की विरोधाभासी प्रक्रियाओं से बनी थी। इनमें से एक पर गांधी-नेहरू की छाप थी। इसक आग्रह था कि राज्य-निर्माण और उसके लिए किए जाने वाले राजनीतिकरण का सिलसिला समाज को धीरे-धीरे भारतीय मर्म से संपन्न आधुनिक समरूपीकरण की ओर ले जाएगा। दूसरी पर सावरकर-मुंजे का साया था। इसका सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रॉजेट ‘पुण्य-भू’ और ‘पितृ-भू’ की श्रेणियों के जरिये जातियों में बंटे हिंदू समाज को राजनीतिक-सामाजिक एकता की ग्रिड में बांधने का था। तीसरी पर फुले-आंबेडकर का विचार हावी था और वह सामाजिक प्रश्न को राजनीतिक प्रश्न पर प्राथमिकता देते हुए भारत में अंग्रेजों की उपस्थिति को तटस्थ शति के रूप में देखती थी। चौथी कल्पना क्रांतिकारी भविष्य में रमी हुई थी और स्वयं को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैश्विक आग्रहों से संसाधित करती थी। गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने अन्य कल्पनाओं के मुकाबले अधिक लचीलापन और सर्वसमावेशी रुझान दिखाते हुए आजाद भारत की कमान संभालने में कामयाबी हासिल की। दरअसल, उसके आगोश में जितनी जगह थी, उसका विन्यास बड़ी चतुराई के साथ किया गया था। वहां पीछे छूट गई बाकी कल्पनाओं के विभिन्न तत्वों को भी जगह मिली हुई थी। इस धारा की खास बात यह थी कि उसमें लोकतंत्र को लगातार सताते रहने वाले बहुसंयकवादी आवेग से निपटने की नैसर्गिक चेतना थी। इसका प्रतिनिधित्व करने वाली राजनीतिक शतियों ने सुनिश्चित किया कि यह आवेग किसी भी तरह से ‘दुष्टतापूर्ण’ रूप न ग्रहण कर पाए और लगातार ‘सौम्य’ बना रहे। इस उद्यम के पीछे एक आत्म-स्वीकृति यह थी कि बहुसंयकवादी आवेग को खत्म तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उसका प्रबंधन अवश्य किया जा सकता है। इसी राजनीतिक प्रबंधन के पहले दौर को विद्वानों ने ‘कांग्रेस सिस्टम’ का नाम दिया है। साठ के दशक के बाद यह प्रबंधन धीरे-धीरे कमजोर होने लगा और इसके क्षय का लाभ उठा कर बाकी तीनों कल्पनाओं ने अपनी दावेदारियां मुखर करनी शुरू कर दीं। सत्तर के दशक से आज तक गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता बाकी तीनों धाराओं की आक्रामकता से भिड़ती रही और पराजित होकर सिकुड़ती चली गई। स्वयं को खत्म होने से बचाने के लिए अस्सी के दशक में इसने बहुसंयकवाद को प्रबंधित करने की अपनी पुरानी प्रौद्योगिकी को छोड़ दिया, और इसके भीतर मौजूद बहुसंयकवादी रुझानों को उभारने में जुट गई। बाल ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा हिंदू वोट बैंक बनाने की रणनीति अपनाने पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘अगर बीबी इंदिरा ऐसा कर सकती हैं, तो हम यह काम उनसे भी अच्छी तरह से कर सकते हैं। यही वह दौर था जब विभिन्न बहुसंयकवादों की खुली होड़ सार्वजनिक जीवन पर छा गई। आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के रूप में सिख बहुसंयकवाद, कश्मीर घाटी में मुस्लिम बहुसंयकवाद, उत्तर -पूर्व में ईसाई बहुसंयकवाद और उत्तर -मध्य भारत में बहुजन थीसिस के जरिए प्रवर्तित जातियों का बहुसंयकवाद बीजेपी-संघ के खुले और कांग्रेस के छिपे हिंदू बहुसंयकवाद के साथ प्रतियोगिता करता नजर आया। आज चुनाव में जीत-हार किसी की भी हो, हमारी आधुनिकता का प्रत्यय पूरी तरह से हिंदुत्ववादी हो गया है।संघ परिवार हिंदू समाज की जातिगत संरचना में बिना अधिक छेड़छाड़ किए हुए उसके ऊपर राजनीतिक एकता की ग्रिड डालने में कामयाब हो गया है। हिंदू होने की प्रतिक्रियामूलक चेतना सार्वजनिक जीवन का स्वभाव बन चुकी है। लोकतंत्र के केंद्र में पुलिस, फौज, अर्धसैनिक बलों और सरकार के आज्ञापालन का विचार स्थापित करने की प्रक्रिया जोर पकड़ रही है। प्रतिरोध, व्यवस्था-विरोध और असहमति के विचार लगभग अवैध घोषित कर दिए गए हैं। एक नया भारत बन रहा है, जिसमें उस भारत की आहट भी नहीं है जिसे गांधी-नेहरू कल्पनाशीलता ने बनाना शुरू किया था।
पाबंदी का रास्ता
संपादकीय
नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के मसले पर समूचे देश में उभरे विरोध के दौरान कुछ जगहों पर हुई हिंसा निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खासतौर पर उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों हुए प्रदर्शन हिंसक हो गए, व्यापक पैमाने पर तोड़फोड़ की घटनाएं सामने आई , डेढ़ दर्जन से ज्यादा लोगों की जान चली गई। जाहिर है, ऐसी स्थिति फिर से नहीं आने देने के लिए कोई भी सरकार कदम उठाएगी। इस लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से विरोध प्रदर्शनों की संभावना और उसके फिर से हिंसक होने की आशंका के मद्देनजर बीस से ज्यादा जिलों में इंटरनेट पर लगाई गई। अस्थायी पाबंदी प्रथम दृष्ट्या उचित ही लगती है। लेकिन सवाल है कि क्या यह मान लिया गया है कि विरोध प्रदर्शनों के दौरान होने वाली हिंसा को सिर्फ इंटरनेट पर पाबंदी लगा कर रोका जा सकता है!
इसमें कोई शक नहीं है कि आज इंटरनेट पर निर्भर सोशल मीडिया के कुछ मंचों का सहारा लेकर कई बार झूठे ब्योरे फैलाए जाते हैं और उसकी वजह से अराजक स्थिति पैदा हो सकती है। लेकिन ऐसी घटनाएं तब भी होती देखी गई हैं, जब इंटरनेट की सुविधा स्थगित हो। ऐसे में किसी ऐसे माध्यम पर बड़े इलाके में पाबंदी लगाने को कैसे अकेला उपाय मान लिया जाता है जिस पर समूची व्यवस्था का ज्यादातर हिस्सा निर्भर हो!
गौरतलब है कि इस साल अब तक देश में सौ से ज्यादा बार इंटरनेट पर पाबंदी लगाई जा चुकी है। आमतौर पर हिंसा की आशंका, बिगड़ती कानून-व्यवस्था और अफवाहों पर लगाम लगाने के लिए यह कदम उठाया जाता है। लेकिन आज इंटरनेट पर निर्भरता का दायरा जितना व्यापक हो गया है, उसमें इस तरह की पाबंदी जैसे कदम से सारे कामकाज ठप्प हो जाते हैं। बैंकों के कामकाज, एटीएम सेवा, इंटरनेट आधारित पढ़ाई-लिखाई, कारोबार, पर्यटन, ट्रेन के टिकट लेने या इससे जुड़ी सारी गतिविधियों के रुक जाने से जितनी बड़ी आर्थिक क्षति होती है, उसका आकलन शायद ही कभी किया जाता है।
इसके अलावा, कोई अफवाह अगर फैल गई है तो इंटरनेट के सहारे ही प्रशासनिक स्तर पर उसकी हकीकत तेज गति से बता कर उस पर लगाम लगाने की गुंजाइश भी बाधित होती है। जबकि किसी तरह की अव्यवस्था या अराजकता की स्थिति से निपटने में संचार सेवा की भूमिका आज काफी ज्यादा बढ़ गई है। कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए सरकार के पास निषेधात्मक कार्रवाई करने के तमाम उपाय मौजूद हैं। लेकिन पूरी तरह पाबंदी का असर सूचना के प्रसार से लेकर आम लोगों की रोजी-रोटी तक पड़ता है, जिनका किसी तरह की अराजकता से कोई लेना-देना नहीं होता।
अगर सरकार को लगता है कि किसी खास गतिविधि से अशांति, अराजकता और हिंसा फैलने की आशंका है, तो वह उस पर रोक लगाने जैसे कदम उठा सकती है। लेकिन इस तरह की पाबंदी से अगर खुद प्रशासनिक स्तर पर कानून और व्यवस्था लागू करने में बाधा पैदा होती है, अनिवार्य कामकाज बाधित होने की स्थिति पैदा हो जाती है, तो यह दूसरी तरह से पैदा हुई अव्यवस्था ही है। इसलिए उम्मीद की जाती है कि सरकारें और प्रशासन गंभीर असर वाले सख्त कदम को प्राथमिक उपाय नहीं मान कर तब ऐसी पहलकदमी करेगी, जब कोई अन्य विकल्प नहीं बचा हो।
विडंबना यह है कि हाल के दिनों में किसी मसले पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों में हिंसा की आशंका जता कर सरकार की ओर से इंटरनेट पर पाबंदी को प्राथमिक और सबसे महत्त्वपूर्ण रास्ता मान लिया गया है। इससे हिंसा फैलाने में इंटरनेट का सहारा लेने वाले लोगों को अपनी मंशा पूरा करने में कोई बाधा आती हो या नहीं, लेकिन अराजक समूहों से इतर ऐसे कदम से बहुत सारे लोगों की लोकतांत्रिक तरीके से अभिव्यक्ति का अधिकार भी बाधित होता है।


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