क्या इस दूसरी दुनिया के लिए तैयार है देश ?
कावेरी बामजई
हमारे देश का वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की जेंडर पे गैप स्केल पर पांच अंक फिसलकर 112 पर आ जाना हैरानी वाला नहीं है। भारत की महिलाएं पुरुषों से 19% कम कमाती हैं। मॉन्सटर सैलेरी इंडेक्स सर्वे की मानें तो उनके और पुरुषों के बीच आय के गैप एक साल पहले तक 20% था जो 2018 में महज 1 प्रतिशत घटा है। भारत में ‘वुमन इन वर्कफोर्स’ से जुड़े सभी इंडीकेटर्स में गिरावट आई है।
2017 में प्रकाशित प्यू रिसर्च की रिपोर्ट के मुताबिक 144 देशों में वर्कफोर्स में भारतीय महिलाओं की मीडियन शेयरिंग 45.4 फीसदी है जबकि मार्च 2017 में वर्कफाेर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 25.9 फीसदी रही। यह सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले निचले 10 देशों में शामिल है। यह डेटा 2010 से 2016 के बीच का है। इससे भी खराब बात है कि 2017-18 के एनएसएसओ के डेटा के मुताबिक वर्कफोर्स में महिलाओं की हिस्सेदारी गिरकर 23.3 प्रतिशत पर आ गई। तो आखिर हो क्या रहा है? क्या वजह है कि स्कूल और कॉलेज की परीक्षा में अव्वल आनेवाली बेटियां अचानक से अदृश्य हो जाती हैं? महिलाओं के यूं खो जाने की दिक्कत के कई कारण हैं- किसानी में उनकी भागीदारी में कमी, खेती से हुई उपज में महिलाओं का योगदान कुल मजदूरी का 55-66 प्रतिशत है। एक बड़ा कारण शादी और मातृत्व भी है। देश में महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए सर्वे एक अहम जरिया हो सकते हैं। खासकर तब जब महिला सशक्तीकरण के मसले पर नए कानून और भाषा गढ़ी जा रही है। छेड़छाड़ जैसे कम खतरनाक सुनाई देने वाले शब्दों को अब और ज्यादा सटीक तौर पर यौन उत्पीड़न कहा जाता है। कॉरपोरेट दुनिया में 26 हफ्तों की मेटरनिटी लीव है। वर्कफोर्स में महिलाओं की मौजूदगी बरकरार रखने को उन्हें दूसरा मौका और फ्लेक्सी टाइम की सुविधा दी जा रही है।
हम अपने इतिहास को भूल जाते हैं कि औरतों ने क्या आंदोलन किए है, जिसकी बदौलत हमें अपने ये हक मिले हैं। महिलाओं की पढ़ाई के योगदान की अहमियत को समझना होगा, जो भारत में महिलाओं के आंदोलन से सीधे जुड़ा है। कमेटी ऑन स्टेटस ऑफ वुमन इन इंडिया (सीडब्ल्यूएसआई ) द्वारा 1974 में पब्लिश ‘बराबरी की ओर’ भारत में महिलाओं की स्थिति पर पहली रिपोर्ट थी, जिसने मथुरा दुष्कर्म मामले के आसपास घूमते नवागत महिलाओं के आंदोलन को सैद्धांतिक और व्यावहारिक संरचना दी। सीडब्ल्यूएसआई का गठन सरकार ने 1972 में किया था। ‘बराबरी की ओर’ रिपोर्ट में महिलाओं के स्वास्थ्य, रोजगार, सामाजिक स्थिति और राजनीतिक भागीदारी की जानकारियां शामिल थीं। रिपोर्ट से जो मालूम हुआ उसने इंडियन काउंसिल फॉर सोशल साइंस रिसर्च आईसीएसएसआर को यूनिवर्सिटी में वुमन स्टडी यूनिट के प्रोजेक्ट्स को फंड देने के लिए प्रोत्साहित किया। ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारत में हायर एजुकेशन में लड़कियों की संख्या बढ़कर 47.6% हुई है। वुमन स्टडी ने छात्रों को संघर्ष समझने और वैचारिक आधार तैयार करने का जरिया दिया है। इससे निचले तबकों की एक व्यापक दस्ते के साथ पहचान बनी है, फिर भले वह जाति के आधार पर हो या धर्म या जेंडर के। यह इसलिए अहम है क्योंकि महिलाओं की परेशानियां समाज की परेशानियां हैं और इसका हल बहुविषयक है।
2012 में निर्भया दुष्कर्म मामले से विरोध प्रदर्शनों की नए स्तर पर शुरुआत हुई। पिंजरा तोड़ जैसे आंदोलन यूनिवर्सिटी कैम्पस में बेतरतीब कर्फ्यू लगाने के विरोध में खड़े हुए। 2017 में मीटू मामलों ने आंदोलनकारी राजनीति को नई ऊर्जा दी। बाकी कई बातों की तरह ही भारत में बदलाव कई स्तर पर जरूरी है। बुनियादी मुद्दे जैसे, स्वास्थ्य और शिक्षा में इंडिकेटर्स निचले स्तर पर हैं लेकिन उनमें सुधार हो रहा है। विकासशील देशों में से भारत में सबसे ज्यादा कुपोषित महिलाएं हैं। 2000 में हुए शोध के मुताबिक 75 प्रतिशत गर्भवती और 70 प्रतिशत अन्य महिलाओं में आयरन की कमी है। पिछले दो दशकों मंे मातृ मृत्यु दर कई विकसित देशों के मुकाबले काफी ज्यादा है। 1992 से 2006 के बीच दुनियाभर में जन्म देने के दौरान हुई मौत में से 20 प्रतिशत भारत में हुई थीं। 2011 के जनसंख्या सर्वे के मुताबिक 0-6 वर्ष के बच्चों के जेंडर अनुपात में लंबे वक्त से ज्यादा पुरुष ही हैं। शिक्षा की बात करें तो दुनिया मंे महिलाओं की शिक्षा का औसत रेट 79.7 प्रतिशत है, जबकि भारत में 65.46 प्रतिशत। चर्चा तो महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य, नौकरीपेशा महिलाओं के बच्चों के लिए डे केयर सेंटर की सुविधा देने और कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ हुए यौन शोषण के आरोपों में न्याय देने की भी हो रही है। विवाद मुस्लिम महिलाओं के पर्सनल लॉ और एलजीबीटी के कानूनों को लेकर भी हो रहे हैं। इन बदलावों का असर साफ है, कि ये महिलाओं की नई पीढ़ी का उदय है, जो कॉलेज कैम्पस और सड़कों पर विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो रहीं हैं। ये नई पीढ़ी बेखौफ है, यह पढ़ी लिखी और महत्वाकांक्षी महिलाओं की पीढ़ी है, जो बेहद सुखद है। लेकिन यह पितृसत्तात्मक तबके के लिए परेशानी है। जिसने अपनी महिला नागरिकों के लिए नौकरी, घर और सार्वजनिक स्थलों पर पर्याप्त प्रावधान नहीं दिए हैं।
महिलाओं को प्रभावित करने वाले तीन महत्वपूर्ण इलाके, शिक्षा, स्वास्थ्य और लॉ एंड ऑर्डर अहम हैं। हम महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन, आवागमन के लिए सुरक्षित स्थान, बेहतर सुविधाओं वाले स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र मुहैया कराने में असफल रहे हैं। एक ओर जहां अमीर शुद्ध हवा, सुरक्षित परिवहन, प्राइवेट स्कूल-कॉलेज और फाइव स्टार सुविधाओं वाले अस्पताल का फायदा उठा सकते हैं, गरीबों के पास ये कुछ भी नहीं है। पर क्योंकि भारत में महिलाओं के आंदोलन में दिखाया है कि तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता जब तक हर कोई आगे न बढ़े। जैसा कि अरूंधती रॉय ने एक बार लिखा था, दूसरी दुनिया मुमकिन है, क्योंकि ‘वह’ आ रही है। सवाल यह है कि क्या भारत इसके लिए राजी है?
Date:28-12-19
हुकूमत में ज्यादा महिलाओं के होने के नफा-नुकसान
संपादकीय
पिछले हफ्ते अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था, यदि ज्यादा महिलाएं सत्ता में आएं तो युद्ध की आशंका कम होगी। उन्होंने यह भी कहा कि किसी देश में ज्यादा महिला नेता होने पर वहां के बच्चों की तबियत सुधरेगी और आम लोगों का जीवन स्तर भी बेहतर होगा। यूं तो बराक ओबामा पहले भी इस तरह की बातें कहते रहे हैं और ये कोई नई बात नहीं है। पर उनकी महिलाओं को हुकूमत में अहमियत देने की बात इसलिए जरूरी हो जाती है क्योंकि हाल ही में सना मरीन फिनलैंड की प्रधानमंत्री बनी हैं और उनकी उम्र दुनिया में प्रधानमंत्री बनने वालों में सबसे कम है।
बात यह तारीफ की है लेकिन सच तो है कि पुरुषों की इस दुनिया में औरतें अस्तित्व के लिए आज भी जद्दोजहद कर रही है। किसी देश को पहली महिला प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति मिलने को अब भी सुर्खियों में जगह मिलती है। अमेरिका जैसे देश में भी अब तक कोई महिला राष्ट्रपति नहीं बनी है। रिसर्च की मानें तो सत्ता में महिलाओं के होने से सरकार की शांतिपूर्ण नीतियां बनाने की संभावना बढ़ जाती है। पर दूसरी ओर यदि जमीनी उदाहरणों को गिनने जाएं तो उन देशों में जहां पीएम या राष्ट्रपति महिला हैं, उनके ज्यादा उग्र विवादों में शामिल होने के किस्से देखने को मिलते हैं। शायद इसलिए क्योंकि दुनिया में कई देशों के समाज महिला नेताओं को कमजोर मानते हैं। और इस छवि को झूठा साबित करने के लिए महिला नेता कई बार कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो जाती हैं। उदाहरण के लिए इंदिरा गांधी और 1971 के उस युद्ध का जिक्र किया जाना लाजमी है जो बांग्लादेश के जन्म का कारण बना।
वरना लकीर के फकीर तो यही मानते हैं कि महिलाएं राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मसलों को निपटाने-सुलझाने के लिए जरा भी उपयुक्त नहीं। 2002 के एक वैश्विक सर्वे में शामिल 61 प्रतिशत लोगों ने माना था कि पुरुष किसी देश के सैन्य संकट को निपटा सकते हैं। जबकि सिर्फ 3 प्रतिशत लोगों ने महिलाओं पर भरोसा जताया था, वहीं बाकी बचे लोगों ने दोनों को बराबर वोट दिए थे। हुकूमत में महिलाओं के होने से नफा और नुकसान की गणना से पहले बड़ा सवाल यह है कि राजनीति और नेतृत्व वाले इलाकों में उन्हें किस हद तक स्वीकार किया गया है? उन्हें कब तक अस्तित्व के लिए लड़ना होगा और कब तक उनकी हुकूमत को ट्रॉफी की तरह देखा जाएगा?
भूजल का प्रबंधन
संपादकीय
भूजल का गिरता स्तर और इसकी वजह से भविष्य में गहराने वाले संकट के मसले पर पिछले कुछ सालों से लगातार चर्चा होती रही है। इस चिंता के मद्देनजर न केवल भारत, बल्कि वैश्विक पैमाने पर सम्मेलनों और सेमिनारों में आने वाले दिनों में पानी के अभाव को लेकर चेतावनी दी जाती रही है। लेकिन चिंता जताना और संकट का हल निकालना अलग-अलग बातें हैं। यह सही है कि सरकार की ओर से जल संरक्षण को लेकर कई कार्यक्रम संचालित हो रहे हैं तो उनका मकसद चुनौतियों से पार पाना ही है। लेकिन यह भी सच है कि स्थानीय हालात और जरूरतों के आधार पर अगर कोई पहलकदमी होती है, तभी इस संकट से पार पाने की उम्मीद की जा सकती है। इस लिहाज से देखें तो बुधवार को लखनऊ में प्रधानमंत्री ने जिस ‘अटल भूजल योजना’ की शुरुआत की है, वह इस दिशा में एक अहम कदम है। अगर यह योजना अपने बुनियादी स्वरूप में जमीन पर उतरती है तो इससे फिलहाल सात राज्यों के आठ हजार तीन सौ पचास गांवों को लाभ मिलने की उम्मीद है।
दरअसल, भूजल के स्तर को लेकर चिंता लंबे समय जताई जाती रही है, लेकिन इस गहराती समस्या से निपटा कैसे जाए, इसकी दिशा अभी पूरी तरह साफ नहीं रही है। न केवल वर्षा से जल के संरक्षण के पहलू पर कोई बड़ी कार्ययोजना जमीन पर नहीं उतर पाई है, न अन्य स्रोतों की वास्तविक स्थिति का आकलन करके उसके समाधान को लेकर ठोस पहल हुई है। हालांकि ‘अटल भूजल योजना’ की शुरुआत के करीब छह महीने पहले भी प्रधानमंत्री ने पानी की एक-एक बूंद के संरक्षण को लेकर जागरूकता अभियान शुरू करने पर जोर दिया था। यह अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि भूजल के स्तर और समग्र पैमाने पर जल की उपलब्धता को लेकर सरकार फिक्रमंद जरूर है, लेकिन शायद एक समग्र योजना के साथ जमीनी अमल अभी बाकी है। समस्या यह है कि भारी पैमाने पर पानी का बेलगाम उपयोग और उसकी बर्बादी करने वाले बड़ी कंपनियों और संस्थानों पर शायद ही किसी की लगाम है। यह गांवों और शहरों में वर्षा जल के संरक्षण को लेकर सजगता नहीं होने और इससे पैदा होने वाली समस्या से इतर एक पहलू है, जिसमें भारी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है। सवाल है कि जल संरक्षण को लेकर जताई जाने वाली चिंता के मद्देनजर क्या इस समस्या के बुनियादी पहलुओं पर भी गौर किया जाएगा?
देश में ऐसे तमाम इलाके हैं, जहां भूजल का स्तर चिंताजनक पैमाने तक नीचे चला गया है। इसका एक बड़ा असर फसलों के उत्पादन के चक्र पर पड़ा है, जिसमें सिंचाई के लिए ज्यादा पानी की जरूरत वाली फसलें बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं। हाल के दिनों में यह राय सामने आई है कि सिंचाई के लिए जल के बढ़ते संकट के मद्देनजर कम पानी की जरूरत वाली वैकल्पिक फसलें उगाने और सूक्ष्म सिंचाई की ओर कदम बढ़ाने की जरूरत है। हालांकि यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे देश में पानी के संरक्षण के कई पारंपरिक तौर-तरीके चलन में रहे हैं। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि आखिर किन वजहों से हम उन परंपराओं से दूर होते गए।
आखिर ऐसा कैसे मुमकिन हुआ कि अपने जीवन के स्रोत के रूप में पानी की अहमियत को गौण हो जाने दिया और नतीजतन आज भूजल के गिरते स्तर से लेकर प्यास तक एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने है। समाज और सरकार की जिम्मेदारी के बरक्स पानी आज लगभग पूरी तरह बाजार के हवाले हो गया है। इतना तय है कि संकट का सही आकलन और उसके मुताबिक हल निकालने की कोशिश समय रहते शुरू नहीं की गई तो समस्या बेहद सकती है।

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