रविवार, 29 दिसंबर 2019

महत्वपूर्ण समाचार 27-12-2019

देश को राष्ट्रीय शरण नीति की जरूरत

सही तो यह होता कि सरकार सीएए की बजाय एक धार्मिक रूप से तटस्थ नागरिकता बिल पेश करती

संपादकीय
भारी बहुमत से सत्ता में आई भाजपा ने सात घंटे की मैराथन बहस के दौरान विपक्ष के भारी विरोध के बाद पहले लोकसभा और उसके बाद राज्यसभा से नागरिकता संशोधन बिल पारित करा लिया। लोकसभा में बिल के पक्ष में 311 तो विरोध में सिर्फ 80 वोट ही पड़े। ऐसा ही राज्यसभा में भी हुआ और यहां पर 105 के मुकाबले 125 मतों से यह बिल पास हो गया। सांप्रदायिक झलक वाले इस बिल को पारित करके नरेंद्र मोदी सरकार ने देश को सफलतापूर्वक एक अंधेरी राह पर धकेल दिया है और इसे वहां से वापसी के लिए निश्चित ही संघर्ष करना पड़ेगा।
जिस बिल पर बहस हुई, विचार हुआ और पारित हुआ, वह बुनियादी तौर पर उन सभी बातों के प्रतिकूल है, जिनके लिए हम ऐतिहासिक रूप से खड़े रहे हैं। यह घोषित करके कि एक समुदाय उनकी सरकार की नजर में कम महत्व रखता है, इस संशोधन ने समानता और धार्मिक आधार पर भेदभाव न करने के हमारे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन किया है। साथ ही राष्ट्र के लिए जान देने वाले हमारे पुरखों के विचारों पर भी हमला है। प्रताप भानु मेहता के मुताबिक हमने अब ‘एक संवैधानिक लोकतंत्र को एक असंवैधानिक जातीयतंत्र में बदलने का विशाल कदम उठाया है’।
पूरे देश में, विशेषकर उत्तर पूर्व में इस कानून के प्रतिकूल परिणाम दिख रहे हैं। असम के एक बंगाली छात्र ने तो मुझे ई-मेल करके बताया कि वह स्थानीय असमी लोगों के मन में भरे प्रतिशोध के गुस्से से डरा हुआ है, क्योंकि इन लोगों को लगता है कि इस बिल से उन पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है। हकीकत यह है कि इस कानून का प्रभाव सिर्फ इसके प्रावधानों तक ही सीमित नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर नए एनआरसी से जोड़कर इस बिल से भाजपा देशभर में एक डर और कट्टरता का माहौल बनाना चाहती है। यद्यपि, इस पूरी कवायद से भाजपा ने दो लोगों को मुस्कुराने का मौका दे दिया है। पहले निश्चित तौर भाजपा के वैचारिक पूर्वज विनायक दामोदर सावरकर हैं, जिन्होंने सबसे पहले हमारे देश को मुस्लिम भारत व गैर-मुस्लिम भारत में बांटने की बात कही थी। 1940 में यही विचार मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में स्वीकार किए गए पाकिस्तान प्रस्ताव में प्रतिबिंबित हुआ था। हमारे राष्ट्रवादी संघर्ष की गोधूलि पर, हमारा खुद का स्वतंत्रता आंदोलन इस बात पर दो हिस्सों में बंट गया था कि क्या धर्म राष्ट्रीयता का आधार होना चाहिए? जिन्होंने इस सिद्धांत में विश्वास किया, उन्हांेने ही पाकिस्तान के विचार का समर्थन किया। जबकि, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद और अंबेडकर का विचार इसके उलट यह था कि धर्म का राष्ट्रीयता से कोई लेना-देना नहीं है। उनके भारत का विचार सभी धर्मों, क्षेत्रों, जातियों और भाषा के लोगों के लिए एक ऐसा स्वतंत्र देश था, जो द्वि-राष्ट्र की अवधारणा को पूरी तरह नकारता था। हमारा संविधान भारत के इस मूल विचार को प्रतिबिंबित करता है, जिसे अब मोदी सरकार धोखा देना चाहती है।
जैसा मैंने संसदीय बहस के दौरान कहा था कि नागरिकता संशोधन विधेयक का पारित होना निश्चित रूप से गांधी की सोच पर जिन्ना की सोच की विजय है। भाजपा एक साथ पाकिस्तान को नकारने व पाकिस्तान को बनाने के तर्क, दोनांे का समर्थन नहीं कर सकती। कैसी विडंबना है कि हिंदुत्व वाली भाजपा अब मोहम्मद अली जिन्ना की प्रामाणिकता को सुनिश्चित करने में जुटी है। अपने कांग्रेसी आलोचकों पर पाकिस्तान की भाषा बोलने का आरोप लगाने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार न केवल पाकिस्तान की तरह बात करती है, बल्कि पाकिस्तान की तरह काम करती है और इससे भी खराब यह है कि पाकिस्तान की तरह सोचती है। यह भी विडंबना ही है कि हिंदुत्व वाली पार्टी ने एक ऐसे विधेयक के लिए आक्रामक रूप से जोर लगाया, जो हिंदू सभ्यता की परंपरा के खिलाफ है और उस विरासत को छोड़ने जैसा है, जिस पर हम गर्व करते थे। 1893 में स्वामी विवेकानंद ने शिकागो में अपने भाषण में कहा था कि उन्हें उस भूमि की ओर से बोलने में गर्व महसूस होता है, जिसने सभी धर्मों व देशों के सताए हुए लोगों को शरण दी है। हमने इस विरासत को तिब्बती, बहाई समुदाय, श्रीलंकाई तमिल और बंग्लादेशियों को बिना धर्म पूछे शरण देते हुए कायम रखा। अब यह सरकार सिर्फ एक समुदाय को उत्पीड़न की उन्हीं स्थितियों में शरण देने से इनकार कर रही है, जो बाकी के लिए हैं। और ये यह सुनिश्चित कर रहे हैं कि इस समुदाय के भारत में रह रहे लोग एक डर के वातावरण में रहें।
सही बात तो यह होती कि भाजपा ने एक धार्मिक रूप से तटस्थ नागरिकता बिल पेश किया होता, जैसा सुझाव लोकसभा सरकार के समर्थक अकाली दल सहित अनेक दलों ने दिया था। यह एक सरकार का बेशर्म प्रदर्शन है, जिसने पिछले साल एक राष्ट्रीय शरण नीति बनाने और उस पर चर्चा से भी इनकार कर दिया था। मैंने इसका प्रस्ताव एक निजी विधेयक के रूप में किया था और इसे व्यक्तिगत रूप से गृहमंत्री, उनके मंत्रियों और गृह सचिव से साझा किया था। अगर, माेदी और अमित शाह की सरकार सच में शरणार्थियों की चिंता करती है तो वह एक राष्ट्रीय शरण नीति की जरूरत को नकार क्यों रही है या फिर वह ऐसी अपनी कोई नीति क्यों नहीं लाती? अचानक वह कुछ शरणार्थियों को नागरिकता देकर एक कदम आगे बढ़ने का दावा करती है, जबकि हकीकत यह है कि वह शरणाथियांे का स्तर सुधारने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत जरूरी मूलभूत चीजें भी नहीं करना चाहती।
एक साल से कुछ ही अधिक समय पहले मेरी उस समय कड़ी आलोचना हुई थी, जब मैंने कहा था कि अगर भाजपा 2019 में जीतती है तो यह पाकिस्तान के हिंदुत्व संस्करण का सूत्रपात करेगी। तब सत्ताधारी दल ने तीखा विरोध किया था और इसके सदस्य मुझ पर अवमानना का मुकदमा चलाने के लिए टूट पड़े थे। कोलकाता के एक जज ने तो इस टिप्पणी के लिए मेरे खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी जारी कर दिया था। दुखद है कि अब मैं दूरदर्शी लगता हूं। पाकिस्तान का हिंदुत्व संस्करण वही है, जो भाजपा के शासन में हमारा भारत बन रहा है।

Date:27-12-19

गलत प्रतिमान बनाकर समाज को बेहतर नहीं कर पाएंगे

संपादकीय
किसी भी समाज में प्रतिमान (आइकॉन) बनाए जाते हैं। ये प्रतिमान हमें उसी जैसा बनने को प्रेरित करते हैं। अगर, हमने जाने-अनजाने में गलत प्रतिमान बनाए तो हमारा समाज भी उसी के अनुरूप ढलने लगता है। फोर्ब्स ने विगत सप्ताहांत में हर साल की तरह भारत के 100 सेलिब्रिटीज के नाम और उनकी रैंकिंग दी है। ध्यान रहे कि ये सेलिब्रिटीज आय और प्रिंट तथा सोशल मीडिया पर उनकी प्रसिद्धि के पैमाने पर तय किए जाते हैं। इस लिस्ट में शीर्ष पर अधिकांशतः फ़िल्मी दुनिया या क्रिकेट के खिलाड़ी हैं। मसलन विराट कोहली ने इस बार सलमान को पीछे छोड़ दिया है, नंबर 2 पर अक्षय कुमार हैं और टॉप टेन में आलिया और दीपिका क्रमशः 8वें और 10वें स्थान पर। चयन का आधार ही स्पष्ट करता है कि अगर देश में किसी टैक्सी ड्राइवर ने टैक्सी में छूट गया लाखों रुपए से भरा सूटकेस उसके मालिक तक पहुंचाया या किसी वैज्ञानिक ने नई खोज की या फिर किसी अफसर ने राजनीतिक दबाव के आगे न झुकते हुए तबादला स्वीकार किया, लेकिन दुष्कर्म की शिकार गरीब युवती की शिकायत पर किसी बड़े राजनेता के खिलाफ केस दर्ज किया तो वह सेलेब्रिटी नहीं होगा, क्योंकि ऐसे कामों से आय तो बढ़ती नहीं है। दूसरा, जो यह सब करता है, वह दिनभर सोशल मीडिया पर नहीं रहता। आपने कभी एक सब्जी बेचने वाले गरीब के बच्चे को जिले में भी सेलिब्रिटी बनते देखा है, जो सिविल सर्विसेज एग्जाम में टॉप कर आईएएस बना या आईआईटी की कठिन एग्जाम में टॉप टेन में रहा? लेकिन, उसी मुहल्ले के एक कक्षा 8 के बच्चे को टीवी के डांस काम्पीटिशन में आने पर उसे कंधे पर उठाने का विजुअल अखबरों और चैनलों में देखा होगा। इसका नतीजा यह होता है कि जब मां-बाप बच्चे को शाम को पढ़ने को कहते हैं तो बेटा उन्हें यह सोचकर देखता है कि ‘तरक्की तो कमर नचाने से होती है। और शायद इसी तरह की सोच के शिकार हो हम सब खूंखार अपराधी को भी चुनाव दर चुनाव वोट देते हैं, यह सोचकर कि गुंडा तो है, लेकिन ‘अपनी बिरादरी की शान है’ या ‘वह गुंडा तो है, लेकिन गरीबों से नहीं अमीरों से पैसा वसूलता है’। आज जरूरत है कि बाजार की ताकतों के वश में होकर गलत प्रतिमान न बनाएं, बल्कि बच्चों के भविष्य के लिए समाज में ईमानदारी और सकारात्मक पहल करने वालों को अपना प्रतिमान बनाएं, ताकि भारत एक बेहतर समाज बन सके।

Date:27-12-19

देश में बने बेरोजगारी का रजिस्टर

प्रो योगेंद्र यादव
देश को अगर कोई राष्ट्रीय रजिस्टर चाहिए, तो वह राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय बेरोजगारी रजिस्टर है. अगर सरकार इस प्रस्ताव को मान लेती है, तो देश का हजारों करोड़ रुपये का खर्चा बचेगा, करोड़ों लोग भय और आशंका से मुक्त हो जायेंगे और देश बेरोजगारी की समस्या को सुलझाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठायेगा.
हालांकि, प्रधानमंत्री ने दिल्ली के अपने भाषण में एनआरसी की योजना से पांव खींचने के संकेत दिये, लेकिन उन्होंने साफ तौर पर यह नहीं कहा कि सरकार आगे इस योजना पर अमल नहीं करेगी. प्रधानमंत्री ने एनआरसी के बारे में बोलते हुए असत्य का सहारा लिया, कहा कि इस पर तो चर्चा भी नहीं हुई है.
सच यह है कि एनआरसी की चर्चा अनेक बार आधिकारिक रूप से हो चुकी है. इसकी घोषणा पिछले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने की थी. भाजपा ने इसे अपने 2019 लोकसभा चुनाव के घोषणापत्र में शामिल किया. कैबिनेट द्वारा पारित राष्ट्रपति के अभिभाषण में बाकायदा इस योजना को लागू करने की घोषणा हुई है.
वर्तमान गृहमंत्री कई बार संसद समेत तमाम मंचों पर एनआरसी की योजना को दोहरा चुके हैं, साल 2024 तक इस रजिस्टर को पूरा करने का आश्वासन भी दे चुके हैं. ऐसे में प्रधानमंत्री द्वारा मासूमियत दिखाना, मानो उन्हीं इसके बारे में कुछ पता ही नहीं था, यह लोगों को आश्वस्त करने की बजाय उनकी आशंकाओं को और बढ़ायेगा.
नागरिकता रजिस्टर के पक्षधर कहते हैं कि किसी भी देश के पास अपने सभी नागरिकों की एक प्रमाणित सूची होनी चाहिए. हां, देश के सभी नागरिकों की प्रामाणिक सूची बनाने में कोई एतराज नहीं होना चाहिए. इससे योजनाओं को लागू करने में मदद ही मिलेगी. सवाल यह है कि ऐसी सूची कैसे तैयार हो? क्या इसके लिए 130 करोड़ से अधिक भारतीयों की नये सिरे से गिनती की जाये? क्या भारत में रहनेवाले हर व्यक्ति पर जिम्मेदारी डाली जाये कि वह इस सूची में शामिल होने के लिए अपनी नागरिकता का सबूत दे? विवाद इन दो सवालों पर है.
अगर सरकार की नीयत देश के नागरिकों की एक प्रामाणिक सूची बनाने की है, तो नये सिरे से शुरुआत करने की कोई जरूरत नहीं है. पूरे देश में वोटर लिस्ट बनी हुई है. अगर बच्चों का नाम भी जोड़ना है, तो राशन कार्ड की मदद ली जा सकती है. इसके अलावा अब अधिकांश हिस्सों में आधार कार्ड उपलब्ध है. इसके अलावा 2021 में होनेवाली जनगणना भी है.
इन सब सूचियों का कंप्यूटर से मिलान कर नागरिकता का रजिस्टर बन सकता है. इसके लिए करोड़ों लोगों को परेशान करने की कोई जरूरत नहीं है. इस सूची में जिन नामों पर कोई आपत्ति हो या शक हो सिर्फ उन्हीं से प्रमाणपत्र मांगे जा सकते हैं. करोड़ों गरीब लोगों के सर पर एनआरसी की तलवार लटकाने की कोई जरूरत नहीं है.
देश को जिस रजिस्टर की सख्त जरूरत है, वह है बेरोजगारी का रजिस्टर. बेरोजगारी के आंकड़े विश्वसनीय तरीके से इकट्ठे करनेवाली संस्था ‘सेंटर फॉर द मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी’ का अनुमान है कि इस समय देश में बेरोजगारी की दर 7.6 प्रतिशत है. ये पंद्रह साल से ऊपर की उम्र के वे लोग हैं, जो काम करना चाहते हैं, लेकिन उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा. इस हिसाब से देश के 3.26 करोड़ लोग बेरोजगार हैं. हैरानी की बात यह है कि इन बेरोजगारों की कोई सूची सरकार के पास नहीं है.
एक जमाने में सरकार ने एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज बनाये थे, लेकिन वह सब ठप पड़े हैं. एंप्लॉयमेंट एक्सचेंज में सिर्फ उन्हीं का नाम दर्ज होता है, जो जाकर वहां अपना नाम दर्ज करवायें. राष्ट्रीय सैंपल सर्वे पांच साल में बेरोजगारों का एक सर्वेक्षण करता है, लेकिन देशभर में एक प्रतिशत से भी कम लोगों का सैंपल लिया जाता है. आज तक देश में सभी बेरोजगारों की कोई एक सूची तैयार ही नहीं हुई है.
अगर सरकार चाहे, तो 2021 की जनगणना के साथ बेरोजगारों का रजिस्टर भी बनाया जा सकता है. जनगणना में परिवार के हर व्यक्ति की आयु शिक्षा और कामकाज के बारे में जानकारी ली जाती है. इस बार यह भी पूछा जा सकता है कि क्या वह व्यक्ति काम करना चाहता है? क्या उसने अपने लिए कामकाज ढूंढने की कोशिश की है?
क्या उसके बावजूद भी वह बेरोजगार है? बस इतने सवाल पूछने भर से देश के हर बेरोजगार की सूची बनाने का काम शुरू हो जायेगा. राष्ट्रीय बेरोजगार रजिस्टर का मतलब सिर्फ बेरोजगारों की सूची नहीं होगा. इसमें बेरोजगारी की किस्म भी देखी जायेगी.
कोई व्यक्ति पूरी तरह बेरोजगार है या आंशिक रूप से बेरोजगार. यह भी दर्ज होगा कि वह किस प्रकार का रोजगार कर सकता है? उसे कितनी शिक्षा या कौन सा हुनर हासिल है? ये सूचनाएं हासिल करने से सरकार को बेरोजगारों के लिए नीति बनाने में मदद मिलेगी. जिन बेरोजगारों का नाम इस रजिस्टर में आये और जिन्हें एक खास अवधि में सरकार रोजगार नहीं दिला पाती, उनके लिए सरकार को कोई व्यवस्था करनी पड़ेगी.
यह काम आसान नहीं होगा. लेकिन एनआरसी बनाने और हर व्यक्ति की नागरिकता के सबूत जुटाने से आसान होगा. यह रजिस्टर नागरिकों में आशंका की बजाय आशा का संचार करेगा. देश को अतीत में ले जाने की बजाय भविष्य की ओर ले जायेगा. क्या यह सरकार ऐसे किसी भविष्य मुखी कदम का संकल्प रखती है? या सिर्फ अतीत के झगड़ों में उलझाकर जनता की आंख में धूल झोंकना चाहती है?

Date:26-12-19

निकाय अफसरों और पार्षदों पर कितना चलेगा अदालत का डंडा

एम जे एंटनी
देश में शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहां पानी की आपूर्ति या सीवरेज प्रवाह की संतोषजनक व्यवस्था हो। नगरपालिकाओं के अधिकारी आमतौर पर आम नागरिकों की शिकायतों के प्रति असंवेदनशील होते हैं और कभी कोई आवश्यक कदम उठाने में शीघ्रता नहीं दिखाते। यहां तक कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी अपनी जिम्मेदारी से बचते हैं और पर्यावरण संबंधी कानून इसलिए नहीं लागू किए जाते हैं क्योंकि ऐसे मामलों में कहीं न कहीं स्थानीय बाहुबली शामिल होते हैं और कानूनी प्रक्रिया का क्या नतीजा निकलेगा, यह तय नहीं होता। परंतु अब सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि नगरपालिका पार्षदों और नगर निगमों के प्रमुख अधिकारियों पर फौजदारी मुकदमा चलाया जा सकता है।
यह निर्णय कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बेंगलूरु तथा अन्य नगरपालिकाओं के सात आयुक्तों (जो अलग-अलग समय पर पद स्थापित रहे) के बीच 14 वर्ष से चली आ रही कानूनी लड़ाई में दिया गया। यह मामला था कर्नाटक प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और बी हीरा नाइक के बीच का।
यह निर्णय भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें कंपनी शब्द की व्याख्या की गई है और इसके दायरे का विस्तार करते हुए वैधानिक संस्थाओं को इसमें शामिल किया गया है। अदालत ने जोर देकर कहा कि नगर निगम के सरकारी विभाग होने की दलील दी जाती है लेकिन ऐसा नहीं है। बल्कि यह एक कॉर्पोरेट संस्थान है। चूंकि धारा 47 के तहत सभी निगम संस्थान कंपनी की परिभाषा के अधीन आते हैं इसलिए नगर परिषद भी इस दायरे में शामिल हैं।
ऐसे में हर उस व्यक्ति का उत्तरदायित्व बनता है जो अपराध घटित होते वक्त प्रभारी रहा हो और कंपनी के कारोबारी आचरण के लिए जिम्मेदार रहा हो। सजा से बचने के लिए उस व्यक्ति को यह साबित करना होगा कि अपराध बिना उसकी जानकारी के हुआ या उसने अपनी तरफ से उचित सतर्कता बरती थी। जाहिर है जो पद पर रहे हों उनके लिए इसे साबित करने का बड़ा बोझ था। नगर पार्षदों की बात करें तो अब उनकी जवाबदेही कंपनी अधिनियम तथा नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स ऐक्ट के तहत निदेशकों की जवाबदेही से अधिक है।
उच्च न्यायालय ने इन अधिकारियों पर अभियोग समाप्त करते हुए कहा कि वे विभागों के प्रमुख थे, न कि किसी कंपनी के कार्याधिकारी। ऐसे में अभियोजन को सरकार की मंजूरी भी आवश्यक थी। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय गलत था और इन पर कार्रवाई के लिए सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं। बोर्ड ने आरोपित आयुक्तों को उपचारित सीवेज छोडऩे की मंजूरी प्रदान की थी जबकि यह 2006 में समाप्त हो चुका था और जिसका नवीनीकरण नहीं किया गया था। वे निरंतर इस अनुपचारित सीवेज अवशिष्टï को तालाबों, झीलों और अन्य प्राकृतिक जल स्रोतों में मिलने दे रहे थे। इस निर्णय के बाद प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को यह अधिकार मिला है कि वे जल एवं वायु संरक्षण के लिए जिम्मेदार लोगों के खिलाफ अभियोग चला सकें। कानून में अपराधों की सूची का ब्योरा भी पेश किया गया है। संक्षेप में कहें तो किसी व्यक्ति को जानते-बूझते कोई विषाक्त या प्रदूषक तत्त्व किसी जल धारा, कुएं, सीवर या जमीन में नहीं मिलने देना चाहिए। जो भी इन प्रावधानों का उल्लंघन करेगा, उसे अधिकतम छह वर्ष तक के कारावास और जुर्माने से दंडित किया जा सकेगा।
हाल के दिनों में अदालत पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन के मामलों में कड़े आदेश सुनाती रही है। दो सप्ताह पहले दिए एक आदेश में उसने दिल्ली के निकट नोएडा के प्राधिकारियों को आदेश दिया कि एक गांव की जल धाराओं का पुनरुद्धार करें, उनका रखरखाव करें और उन्हें संरक्षण प्रदान करें। जितेंद्र सिंह बनाम पर्यावरण मंत्रालय के इस मामले में परंपरागत जल स्रोतों को औद्योगिक इकाइयों के फायदे के लिए पाटा जा रहा था।
इससे पर्यावरण नियमों का उल्लंघन हो रहा था। आम लोगों ने पहले भी जनहित याचिकाएं लगाई हैं। इनमें सबसे पहला है सन 1980 का रतलाम नगर निगम मामले का फैसला। सर्वोच्च न्यायालय ने मध्य प्रदेश के रतलाम नगर निगम को एक स्थान की साफ-सफाई कराने का आदेश देते हुए कहा था कि बजट की बाधा किसी नगर निगम द्वारा सफाई जैसे बुनियादी काम की अनदेखी करने का बहाना नहीं हो सकती। उक्त फैसला पढऩे में तो अच्छा है लेकिन रतलाम की यात्रा करने पर पता चल जाता है कि उस फैसले का जमीनी अमल न के बराबर हो रहा है। उसके बाद आया एम सी मेहता का मामला जिसमें अदालत अभी भी आदेश जारी कर रही है। सन 1996 में एमआईटी से स्नातक करने वाली पहली महिला इंजीनियर अल्मित्रा पटेल ठोस कचरे को लेकर अदालत गईं। साल दर साल आए अदालती आदेशों के बावजूद हालात और खराब ही हुए हैं। हाल में सरकार ने इस विषय पर 850 पृष्ठों का एक शपथ-पत्र दिया है। न्यायाधीशों ने कहा कि कागजों का यह बंडल अपने आप में ठोस कचरा है।
अब तक प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ सबसे प्रमुख कारक सामाजिक कदम और क्षतिपूर्ति के होते थे। कर्नाटक का फैसला प्रदूषण बोर्डों को यह अधिकार देता है कि वे नगर निकायों के अधिकारियों के खिलाफ कदम उठा सकें। जनहित याचिकाओं में दिए जाने वाले निर्णयों की तुलना में आपराधिक प्रक्रिया अधिक प्रभावी साबित होगी। बहरहाल, बड़ा सवाल यह है कि क्या नियामकों में इतना साहस होगा कि वे शहरों के नामियों-गिरामियों और संस्थाओं के खिलाफ अभियोग चला सकें।

Date:26-12-19

राज्यों का असहयोग, केंद्र के विकल्प

कुछ राज्य अगर राजनितिक कारणों से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की प्रक्रिया में सहयोग नहीं देते, तो कई मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं

हरबंश दीक्षित, (विधि विशेषज्ञ)
बीते कुछ समय से कुछ राज्य सरकारों द्वारा केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों को मानने से इनकार करने की परंपरा अब चिंता का विषय बनती जा रही है। नागरिकता संशोधन कानून के बाद राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर कुछ राज्यों का रुख इसका ताजातरीन उदाहरण है। पिछले दिनों राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर पर पैदा हुए गहरे विवाद के बाद कुछ लोगों ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर दरअसल नागरिक रजिस्टर की ही पूर्वपीठिका है। इसी के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि वह जनसंख्या रजिस्टर की प्रक्रिया से अपने राज्य को अलग रखेगी। इसके बाद तो कई गैर-भाजपा शासित राज्यों ने ऐसी ही घोषणा कर दी। इसके बाद से यह सवाल महत्वपूर्ण हो गया है कि अगर कुछ राज्य इस प्रक्रिया में भाग नहीं लेते, तो केंद्र सरकार के पास क्या विकल्प बचेंगे?
संघात्मक शासन व्यवस्था में कई बार केंद्र और राज्य सरकारों के अलग-अलग राजनीतिक दर्शन और परस्पर विरोधी राजनीतिक हित होते हैं, इसलिए संघीय व्यवस्था को कभी-कभी इस दौर से गुजरना कोई नई बात नहीं है, किंतु ऐसे हालात से निपटने के लिए स्पष्ट सांविधानिक ढांचे तथा विवेकशील राजनीतिक नेतृत्व की जरूरत पड़ती है। हमारे संविधान निर्माता इन संभावनाओं से अनभिज्ञ नहीं थे, इसीलिए संविधान में ऐसे हालात से निपटने के लिए व्यापक दिशा-निर्देशों को लिपिबद्ध किया गया।
संविधान के अनुच्छेद 73 में केंद्र के क्षेत्राधिकार के बारे में बताया गया है। इसके दो भाग हैं। पहले भाग में कहा गया है कि केंद्र सरकार के अधिकार का विस्तार उन सभी मामलों में है, जिन पर कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है। इसके अलावा केंद्र सरकार का अधिकार उन विषयों पर भी है, जिन पर केंद्र सरकार को किसी अंतरराष्ट्रीय संधि के क्रियान्वयन के लिए जरूरी कदम उठाने हों। संविधान के अनुच्छेद 256 के अनुसार, राज्य सरकारों का यह दायित्व है कि वे संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन सुनिश्चित करें और इसमें केंद्र सरकार को अधिकार दिया गया है कि वह उन कानूनों के पालन के लिए जरूरी निर्देश जारी कर सकती है।
इसी तरह, अनुच्छेद 257(1) में कहा गया है कि राज्य सरकार अपने अधिकारों का उपयोग ऐसी रीति से करेगी, जिससे केंद्र सरकार के अधिकारों के उपयोग में किसी तरह की बाधा पैदा न हो। इसमें यह भी कहा गया है कि केंद्र सरकार अपने निर्देशों के क्रियान्वयन के लिए आवश्यकता पड़ने पर जरूरी दिशा-निर्देश भी जारी कर सकती है। अनुच्छेद 257(2) में राष्ट्रीय महत्व के तथा सेना से जुड़े संचार माध्यमों की सुरक्षा और अनुच्छेद 257(3) रेलवे की परिसंपत्तियों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार को जरूरी दिशा-निर्देश देने का अधिकार दिया गया है। केंद्रीय महत्व के अलग-अलग मामलों में केंद्र सरकार को इसी तरह के अधिकार संविधान के कुछ और अनुच्छेद में दिए गए हैं।
केंद्र सरकार के पास अपना इतना बड़ा ढांचा नहीं हो सकता कि वह अपने कानूनों को खुद लागू करे। उसे अपने कानूनों को राज्यों के अधीन काम करने वाले कर्मचारियों के जरिए ही लागू करना होता है। हमारे संविधान निर्माताओं को केंद्र-राज्य संबंधों की जटिलता का अंदाजा था। इसीलिए संविधान सभा में इस बात पर भी गहन चर्चा हुई कि यदि कोई राज्य केंद्र सरकार के निर्देशों को मानने से इनकार कर दे, तो केंद्र के पास क्या विकल्प होंगे? व्यापक विचार-विमर्श के बाद संविधान में इसके लिए अनुच्छेद 365 को लिपिबद्ध किया गया। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि यदि संविधान में वर्णित किसी अधिकार के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा दिए गए निर्देश का अनुपालन करने में कोई राज्य असफल रहता है, तो इस आधार पर अंतिम विकल्प के रूप में उस राज्य में राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है।
अनुच्छेद 365 हमारे संविधान शिल्पियों के आलेखन-शिल्प का अनुपम उदाहरण है। इसके द्वारा केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के महत्व को स्पष्ट कर दिया गया है तथा उसके साथ ही राजनीतिक शिष्टाचार और संयम की संभावना को भी बरकरार रखा गया है। इसकी शब्दावली यह स्पष्ट संदेश देती है कि केंद्र के दिशा-निर्देशों को न मानने पर राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है, किंतु इसके साथ ही राजनीतिक विवेक से अपेक्षा की गई है कि राजनीति में ऐसी कठोर कार्रवाई से यथासंभव परहेज किया जाना चाहिए। वे अक्सर विवाद को सुलझाने की बजाय जटिल करते हैं। हम लोग निश्चित रूप से उन कुछ सफल देशों की जमात में शामिल हैं, जहां राजनीतिक नेतृत्व ने विवेकपूर्ण निर्णय लिया है। हमारे गणतंत्र के इतिहास में केंद्र के निर्देश को नहीं मानने के आधार पर कभी राष्ट्रपति शासन नहीं लगा है।
केंद्र के निर्देशों के पालन को लेकर अमेरिका और कनाडा को कई बार अरुचिकर स्थितियों का सामना करना पड़ा। हमारे यहां इनकी संख्या इतनी कम है कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। केंद्रीय बलों की तैनाती को लेकर केरल सरकार से मतभेद और एक बार पश्चिम बंगाल की ज्योति बसु सरकार का केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के पालन से इनकार के अलावा कोई बड़ा उदाहरण हमारे पास नहीं है। अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर भी केंद्र और राज्यों के बीच बहुत गंभीर मतभेद थे। इन सभी मामलों में एक बात पर सदैव सहमति रही कि इस तरह के राजनीतिक विवादों का निपटारा संविधान के दायरे में ही हो, इसीलिए केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए 1983 में सरकारिया आयोग का गठन किया गया। सरकारिया आयोग ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग पर चिंता व्यक्त करते हुए उस पर व्यापक दिशा-निर्देश दिया, किंतु अनुच्छेद 256, 257, 339, 350, 365 में समीक्षा की आवश्यकता नहीं महसूस की।
लोकशाही में लोकरंजना का अपना अलग महत्व होता है। कोई राजनेता अपने को उससे अलग नहीं रख सकता, क्योंकि सत्ता की चाबी तो आम जनता के पास ही होती है। इसे बचाने के लिए कई बार ऐसा भी होता है कि उनका आचरण संविधान के तकनीकी दायरे से अलग हो जाता है। संविधान की कभी-कभार अनदेखी करना और लोकप्रियता के लिए बयान जारी कर देना अजूबी बात नहीं है, किंतु उसका स्थाई भाव होना उचित नहीं है। राजनीति मूलत: इस तरह की परस्पर विरोधी परिस्थितियों के प्रबंधन का ही कौशल है। राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को लेकर उठे विवाद के बीच यही वह मौका है, जब केंद्र सरकार को अपना प्रबंधन कौशल दिखाना होगा।

Date:26-12-19

रेलवे में सुधार

संपादकीय
भारतीय रेलवे में बदलाव और सुधार की प्रक्रिया न केवल स्वागतयोग्य है, बल्कि दूसरे क्षेत्रों के लिए अनुकरणीय भी है। सरकारी उपक्रमों में रेलवे देश की सबसे बड़ी कंपनियों में शुमार है और एक साथ सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार भी रेलवे के जरिए ही नसीब होता है। अत: रेलवे में किसी भी तरह का सुधार सीधे देश की रोजी-रोटी से जुड़ा मामला है। केंद्र सरकार ने 114 साल पुराने रेलवे बोर्ड के ढांचे को बदलने का फैसला कर लिया है, जो एक तरह से बहुप्रतीक्षित था। भारतीय रेलवे बोर्ड का ढांचा आज तक सामंती मानसिकता वाला रहा है।
बोर्ड के जिम्मे काम तो बहुत रहे हैं, लेकिन उसमें जवाबदेही और सेवा गुणवत्ता का जो जरूरी स्तर होना चाहिए, उसका सदा से अभाव रहा है। रेलवे के तहत आने वाली आठ सेवाओं को मिलाकर एक सेवा गठित करना एक ऐसा फैसला है, जिसकी वकालत और चर्चा लंबे समय से होती रही है। विगत 25 वर्षों में पांच से ज्यादा समितियां रेलवे सेवाओं के एकीकरण की सिफारिश कर चुकी हैं। पर इन सिफारिशों को पहले ही क्यों नहीं मान लिया गया? आज जो लाभ गिनाए जा रहे हैं, यह काम तो पहले भी हो सकता था? इसीलिए रेलवे के बारे में लिया गया यह फैसला अनुकरणीय है। अन्य सरकारी विभागों को भी चुस्त-दुरुस्त करने के बारे में जो अच्छी सिफारिशें प्रस्तावित हैं, उनके लिए कदम तेजी से बढ़ाने चाहिए।
रेलवे का ढांचा न केवल सामंती रहा है, बल्कि उसके जरिए सत्ता का संतुलन बनाने-बिठाने की कोशिशें भी पुरानी हैं। ज्यादा से ज्यादा अधिकारियों को खुश करने और प्रभारी होने का एहसास कराने के लिए भी जरूरत से ज्यादा सेवाएं या पद गठित कर दिए जाते हैं। एक लोक-कल्याणकारी राज्य शक्ति का विकेंद्रीकरण चाहता है, लेकिन यह भी परखना चाहिए कि इस विकेंद्रीकरण से क्या वाकई लोक-कल्याण का लक्ष्य पूरा हो रहा है? अच्छी बात है, अब केंद्र सरकार यदि एकीकरण, पदों या सेवाओं की संख्या में कटौती का फैसला ले चुकी है, तो उसे अपने फैसले को सेवा की गुणवत्ता व जवाबदेही सुनिश्चित करके सफल साबित करना होगा। बदलाव जरूरी हैं, लेकिन उससे भी जरूरी है कि इन बदलावों का लाभ रेलवे और देश को मिले। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने कहा है कि सरकार रेलवे में गुटबाजी खत्म करना चाहती है, लेकिन लोगों का गुटबाजी से नहीं, बल्कि रेल सेवाओं से सरोकार है। क्या गुटबाजी खत्म होने से रेलवे का कामकाज वाकई तेजी से सुधरने लगेगा और रेलवे को आर्थिक लाभ होने लगेगा?
अगर एकीकृत भारतीय रेल प्रबंधन सेवा रेलवे के समेकित विकास का कारण बने, तो इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। फिर भी सुधार की चुनौतियां अभी कम नहीं हुई हैं। यह देखना होगा कि वह कौन लोग या कौन-सी मनोवृत्ति है, जो 25 साल से इस सुधार के मार्ग में बाधा बनी हुई थी? कौन लोग थे, जो सुधार की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे? कौन लोग हैं, जिन पर इन ताजा सुधारों को सफल साबित करने की जिम्मेदारी है? नए रोजगारों का इंतजार कर रहे देश में रेल अफसरों-कर्मचारियों की संख्या आधी करने की चर्चा कितनी कारगर है? क्या हम धीरे-धीरे रेलवे के निजीकरण की ओर बढ़ रहे हैं? निस्संदेह, आज रेलवे ऐसे अनगिन प्रश्नों व समस्याओं से घिरा हुआ है और उत्तरों व समाधानों का सबको इंतजार है।

Date:26-12-19

अनर्थ करता पर्यावरणीय असंतुलन

पंकज चतुव्रेदी
देश की खारे पानी की सबसे बड़ी झील राजस्थान की सांभर झील में अभी तक 25 हजार से ज्यादा प्रवासी पंछी मारे जा चुके हैं। पक्षियों की इतनी भयानक मौत पर राजस्थान हाई कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया है। राज्य सरकार से 2010 में भी लगभग इसी तरह हुई पक्षियों की मौत के बाद गठित कपूर समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के अमल की जानकारी मांगी है। सभी जानते हैं कि आर्कटिक क्षेत्र और उत्तरी ध्रुव में जब तापमान शून्य से चालीस डिग्री तक नीचे जाने लगता है, तो वहां के पक्षी भारत की ओर आ जाते हैं।
भारत में खारे पानी की सबसे विशाल झील ‘‘सांभर’ का विस्तार 190 किमी. व लंबाई 22.5 किमी. है। अधिकतम गहराई तीन मीटर तक है। अरावली पर्वतमाला की आड़ में स्थित झील राजस्थान के तीन जिलों-जयपुर, अजमेर और नागौर तक विस्तारित है। 1996 में 5,707.62 वर्ग किमी. जल ग्रहण क्षेत्र वाली झील 2014 में 4700 वर्ग किमी. में सिमट गई। चूंकि भारत में नमक के कुल उत्पादन का लगभग नौ फीसद-196000 टन-नमक यहां से निकाला जाता है, इसलिए नमक माफिया यहां जमीन पर कब्जा करता रहता है। इस साल दीपावली बीती ही थी कि हर साल की तरह सांभर झील में विदेशी मेहमानों के झुंड आने शुरू हो गए। नये परिवेश में वे खुद को व्यवस्थित कर पाते कि उससे पहले ही उनकी गर्दन लटकने लगी, पंख बेदम हो गए, न चल पा रहे थे और न ही उड़ पा रहे थे। लकवा जैसी बीमारी से ग्रस्त पक्षी तेजी से मरने लगे। एनआईएचएसडी भोपाल का दल आया। उसने सुनिश्चित कर दिया कि मौत र्बड फ्लू के कारण नहीं हैं। भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान बरेली के एक दल ने मृत पक्षी के साथ-साथ वहां के पानी और मिट्टी के नमूने लिए और जांच कर बताया कि मौतों का कारण ‘‘एवियन बटुलिज्म’ नामक बीमारी है। यह बीमारी ‘‘क्लोस्ट्रिडियम बटूलिज्म’ नाम के बैक्टीरिया की वजह से फैलती है। आम तौर पर मांसाहारी पक्षियों को ही होती है। सांभर झील में भी यही पाया गया कि मारे गए सभी पक्षी मांसाहारी प्रजाति के थे। लेकिन बहुत से वैज्ञानिक मौतों के पीछे ‘‘हाइपर न्यूट्रिनिया’ को मानते हैं। नमक में सोडियम की मात्रा ज्यादा होने पर पक्षियों के तंत्रिका तंत्र पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। वे खाना-पीना छोड़ देते हैं, और उनके पंख व पैर में लकवा हो जाता है। कमजोरी के चलते प्राण निकल जाते हैं। माना जा रहा है कि पक्षियों की प्रारंभिक मौत हाइपर न्यूट्रिनिया से ही हुई। बाद में उनमें ‘‘एवियन बटुलिज्म’ के जीवाणु विकसित हुए और ऐसे मरे पक्षियों का जब अन्य पंछियों ने भक्षण किया तो बड़ी संख्या में उनकी मौत हुई। बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि मेहमान पक्षियों की मौत के मूल में सांभर झील के पर्यावरण के साथ लंबे समय से की जा रही छेड़छाड़ भी है। सांभर सॉल्ट लिमिटेड ने नमक निकालने के ठेके कई कंपनियों को दे दिए जो मानकों की परवाह किए बगैर गहरे कुंए और झील के किनारे दूर तक नमकीन पानी एकत्र करने की खाई बना रहे हैं। फिर परिशोधन के बाद गंदगी को इसी में डाल दिया जाता है। विशाल झील को छूने वाले किसी भी नगर-कस्बे में घरों से निकलने वाला हजारों लीटर गंदा-रासायनिक पानी हर दिन झील में मिल रहा है। जलवायु परिवर्तन की त्रासदी है कि इस साल औसत से कोई 46 फीसदी ज्यादा पानी बरसा। इससे झील के जल ग्रहण क्षेत्र का विस्तार हो गया। चूंकि इस झील में नदियों से मीठे पानी की आवक और अतिरिक्त खारे पानी को नदियों में मिलने वाले मागरे पर भयंकर अतिक्रमण हो गए हैं, इसलिए पानी में क्षारीयता का स्तर नैसर्गिक नहीं रह पाया।
भारी बरसात के बाद यहां तापमान फिर से 27 डिग्री के पार चला गया। इससे पानी का क्षेत्र सिकुड़ा और उसमें नमक की मात्रा बढ़ गई। इसका असर झील के जलचरों पर भी पड़ा। हो सकता है कि इसके कारण मरी मछलियों को दूर देश से थके-भूखे पहुंचे पक्षियों ने खा लिया हो और उससे ‘‘एवियन बटुलिज्म’ के बीज पड़ गए हों। सांभर सॉल्ट लिमिटेड ने झील का एक हिस्सा एक रिसॉर्ट को दे दिया है। यहां का सारा गंदा पानी इसी झील में मिलाया जाता है। जब पंछी को ताजी मछली नहीं मिलती तो झील में तैर रही गंदगी, मांसाहारी भोजन के अपशिष्ट या कूड़ा खाने लगता है। ये बातें भी पक्षियों के इम्यून सिस्टम के कमजोर होने और उनके सहजता से विषाणु के शिकार हो जाने के कारक हैं। पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षी अपने प्राकृतिक पर्यावास में मानव दखल, प्रदूषण, भोजन के अभाव से भी परेशान हैं। प्रकृति संतुलन और जीवन-चक्र में प्रवासी पक्षियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इनका इस तरह मारा जाना असल में अनिष्टकारी है।

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